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________________ 173 अप्रमत्तविरत गुणस्थान से पाप की ही प्राप्ति होती है। सम्यग्दृष्टि पुण्य चाहता नहीं अर्थात् पुण्य को हेय मानता है तो भी उसे सातिशय पुण्य का बंध होता रहता है। आगे श्रेणी के सन्मुख या श्रेणी पर आरूढ़ साधक के धर्म तो विशेष बढ़ता ही जाता है, साथ ही पुण्य का अनुभाग भी प्रति समय अनंतगुणा बढ़ते जाना और उसी समय पाप का अनुभाग भी प्रतिसमय अनंतगुणा घटते जाना ये कार्य स्वयमेव तथा सतत होते रहते हैं। ऊपर लिखित (1) प्रति समय अनंतगुणी विशुद्धि (2) स्थिति बंधापसरण (3) प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग अनंतगुणा बढ़ना और 4. अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग अनंतगुणा घटना - ये चारों आवश्यक कार्य सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में प्रारंभ हो जाते हैं और आगे आठवें, नववें और दसवें गुणस्थानों में भी होते ही रहते हैं। 68. प्रश्न : उपशांत मोह आदि आगे के चारों गुणस्थानों में ये ऊपर लिखित चारों आवश्यक कार्य क्यों नहीं होते ? उत्तर : इसके निम्नानुसार तीन कारण हैं - (1) उपशांत मोह आदि आगे के चारों गुणस्थानों में नवीन कर्मों का बंध होना ही रुक गया है, अतः स्थिति कम होने का काम ही नहीं रहा। (2) उपशांत मोह आदि आगे के चारों गुणस्थानों में मुनिराज पूर्ण वीतरागी हो गये हैं; इस कारण इन आवश्यक कार्यों के लिए अवकाश ही नहीं है। (3) कषाय-नोकषायों का अभाव ही हो गया है, इस कारण अनुभाग घटने-बढ़ने का कुछ काम ही नहीं रहा / इसीलिए चारों आवश्यक कार्य ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में होते ही नहीं। ___5. सातवें गुणस्थान के नाम में अप्रमत्त शब्द आया है, वह आदि दीपक है; क्योंकि इस सातवें गुणस्थान से लेकर ऊपर के सभी गुणस्थान अप्रमत्त ही होते हैं। अप्रमत्त दशा अर्थात् ध्यानावस्था, शुद्धोपयोग, आत्मलीनता, शुद्धात्मा की अस्ति की मस्ति में मग्नता - ऐसे अनेक नाम हैं।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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