________________ 150 गुणस्थान विवेचन सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में गमन करते हैं और द्रव्यलिंगी मुनिराज हो जाते हैं। तीसरे एवं दूसरे गुणस्थान का काल अल्प होने से इनके साथ द्रव्यलिंगीरूप व्यवहार गौण रहता है। 6. कोई प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिराज छठवें से सीधे मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय कर्म के उदय होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में भी गमन करते हैं अर्थात् जो पहले समय में भावलिंगी मुनिराज थे, वे ही अपने पुरुषार्थ की विपरीतता के कारण विशिष्ट वीतरागतारूप धर्म से च्युत हो जाने से प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज हो जाते हैं। ___ देखो, परिणामों की विचित्रता ! बाह्य में द्रव्यलिंगरूप मुनिपना तो यथार्थरूप से वैसा का वैसा ही है; लेकिन अंदर में न मुनियोग्य धर्म (शुद्धता) रहा, न व्रती श्रावक के योग्य, न सम्यग्दृष्टि के योग्य परिणाम। आगमन - इस प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आगमन मात्र अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से ही होता है / अपूर्वकरण आदि उपरिम किसी भी गुणस्थानों से सीधे छठवें गुणस्थान में आगमन नहीं होता। __नीचे के पाँचों गुणस्थानों में से भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आगमन नहीं होता। ___ सातवें शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से ही शुभोपयोगरूप छठवें गुणस्थान में आगमन का नियम है। 58. प्रश्न : छठवें गुणस्थान को शुभोपयोगरूप ही क्यों कहा? और नीचे की ओर पतन होते समय प्राप्त होने वाला गुणस्थान भी क्यों कहा ? उत्तर : छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तीन कषाय चौकड़ी का अनुदय होने से शुद्ध परिणतिरूप वीतरागता तो है; परन्तु यहाँ पर मुनिराज के संज्वलन कषाय के तीव्र उदय से बुद्धिपूर्वक शुभोपयोगरूप भाव है, अतः उसे शुभोपयोगरूप कहा है। मुनिजीवन में दो ही उपयोग मुख्यता से होते हैं - (1) शुद्धोपयोग और (2) शुभोपयोग / निर्विकल्प ध्यानरूप अवस्था, जो अप्रमत्तदशा है; उसे शुद्धोपयोग कहते हैं। ध्यान से च्युत होने पर सविकल्प अवस्था शुभोपयोगरूप है;