________________ प्रमत्तविरत गुणस्थान - 149 अड़तालीस मिनिट में से एक समय कम तक भेद करते जाने से अंतर्मुहूर्त के असंख्यात भेद हो जाते हैं - ये सर्व अंतर्मुहूर्त के ही भेद हैं। (भिन्न अन्तर्मुहूर्त भी अन्तमुहूर्त ही हैं।) गमनागमन अपेक्षा विचार गमन - 1. प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिराज अपना यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त काल व्यतीत करने पर हमेशा अभ्यस्त हो जाने के कारण त्रिकाली निज सहजानंदमय शुद्धात्मा के ध्यान द्वारा शुद्धोपयोग प्रगट करके ऊपर के एकमेव अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही गमन करते हैं; अन्य अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में सीधे गमन नहीं करते। 2. यदि छठवें से नीचे की ओर गमन करें तो अपनी पुरुषार्थ की हीनता से/अपने अपराध से और अन्य गुणस्थान के लिए यथायोग्य कर्मों के उदयादि से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिराज सीधे देशविरत गुणस्थान में गमन कर सकते हैं। यहाँ आते ही वे भावलिंगी मुनिराज प्रत्याख्यानावरण कषायकर्म के उदय में पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनि हो जाते हैं। 3. अंतर्मुहूर्त पहले जो तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय से भावलिंगी मुनिराज थे, वे ही पूर्व कुसंस्कारों की तीव्रतावश अपने परिणामों में हीनता आने से अगले अंतर्मुहूर्त में छठवें से सीधे अप्रत्याख्यानादि कषाय कर्म के उदय में अविरतसम्यग्दृष्टि हो जाते हैं अर्थात् चतुर्थ गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी हो जाते हैं। ___4. कोई छठवें गुणस्थानवर्ती सच्चे मुनिराज अपनी व्यक्त परिणतिरूप वीतरागता से च्युत होते हैं और उसीसमय श्रद्धा में सम्यमिथ्यापनारूप परिणमित होकर मिश्र दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के निमित्त से छठवें से सीधे तीसरे मिश्र गुणस्थान में गमन करते हैं। इनको भी द्रव्यलिंगी कह सकते हैं। 5. कोई द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सहित प्रमत्तसंयत मुनिराज चारित्र एवं सम्यग्दर्शन से च्युत होकर अनंतानुबंधी कषाय परिणाम के व्यक्त होने से तथा उसीसमय अनंतानुबंधी कषाय कर्म का उदय भी आ जाने से दूसरे