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________________ 148 गुणस्थान विवेचन मुनिराज शुद्धोपयोगरूप ध्यानावस्था कीसतत रुचिरखते हैं और पुरुषार्थ भीवेवैसा ही करते हैं। अत: वे तुरंत अप्रमत्तविरत गुणस्थान में ही गमन करते हैं। यदि छठवें से सीधे मिथ्यात्व गुणस्थान में गमन करेंगे तो ही प्रमत्तविरत गुणस्थानवर्ती मुनिराज का सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल होता है। __मध्यमकाल - जैसे मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय सिद्ध होता है; उसीप्रकार दो, तीन, चार आदि समय, संख्यात समय, एक आवली आदिरूप भेद, जो यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त के भीतर होंगे, वे सर्व भेद मरण की अपेक्षा प्रमत्तसंयत गुणस्थान के मध्यमकाल के घटित हो सकते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के काल से दुगुना होता है। 56. प्रश्न : छठवें गुणस्थान का जब उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त काल समाप्त हो जाता है और मुनिराज अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में गमन करनेरूप पुरुषार्थ नहीं कर पाते, तो ऐसी स्थिति में वे मुनिराज छठवें गुणस्थान में कब तक रह सकते हैं ? उत्तर : प्रमत्तसंयत का उत्कृष्टकाल मात्र एक (मध्यम) ही अंतर्मुहूर्त है, उससे अधिक काल किसी भी परिस्थिति में कोई भी मुनिराज प्रमत्तसंयत गुणस्थान में रह सकते ही नहीं। यदि छठवें के अंतर्मुहूर्त काल पूर्ण होते ही तत्काल सातवें अप्रमत्तसंयत शुद्धोपयोगरूप दशा में गमन नहीं होता है तो नीचे के पाँचवें आदि पाँचों गुणस्थानों में से किसी न किसी एक गुणस्थान में वे गमन करते ही हैं। क्षायिक सम्यक्त्व सहित प्रमत्तविरत गुणस्थान हो तो उनका पतन चौथे से नीचे नहीं होगा। प्रमत्तसंयत गुणस्थान में मात्र एक अंतर्मुहूर्त ही रह सकते हैं। 57. प्रश्न : क्या अंतर्मुहूर्त के भी अनेक भेद हैं ? उत्तर : हाँ, अंतर्मुहूर्त के असंख्यात भेद हैं। असंख्यात समयों की एक आवली होती है। एक आवली काल में एक समय और जोड़ देने से जघन्य अंतर्मुहूर्त होता है। इसमें दो, तीन, चार आदि समय जोड़ते जाने से अंतर्मुहूर्त के भेद होते जाते हैं। इसीतरह भेद करते-करते मुहूर्त अर्थात्
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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