SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 147 प्रमत्तविरत गुणस्थान चारित्र अपेक्षा विचार - इस छठवें गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र होता है / वह इसप्रकार है - यहाँ प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के वर्तमानकालीन सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, उनके ही भविष्य में उदय में आने योग्य सर्वघाति स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम और देशघाति संज्वलन कषायकर्म और नौ नोकषायकर्म का तीव्र उदय रहता है। इसप्रकार चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम घटित होता है। (धवला पुस्तक 1, पृष्ठ 177) निश्चयनय से तो चारित्र एक वीतरागभावस्वरूप ही होता है। उसे क्षायोपशमिक आदि नाम तो कर्म का निमित्त जानकर व्यवहारनय से ही दिये गये हैं। मुनिराज के जीवन में तीन कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक व्यक्त वीतरागता तो निश्चय चारित्र है और उसी समय संज्वलन कषायोदय से अट्ठाईस मूलगुणों के पालन का जो शुभराग होता है, उसे निश्चय वीतरागभाव का सहचारी जानकर व्यवहारनय से चारित्र कहते हैं। इसी का कथन मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 229 पर निम्नप्रकार किया है - ..... सकल कषाय रहित जो उदासीन भाव, उसी का नाम चारित्र है। ..... जो चारित्रमोह के देशघाति स्पर्धकों के उदय से महामंद प्रशस्त राग होता है, वह चारित्र का मल है। ..... कितने ही मंदकषायरूप महाव्रतादि का पालन करते हैं; परंतु उसे मोक्षमार्ग नहीं मानते / काल अपेक्षा विचार - जघन्यकाल-एक समय है / कोई मुनिराज ध्यानमय अप्रमत्त गुणस्थान से छूटकर शुभोपयोगरूप छठवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं और वहाँ मात्र एक समय काल व्यतीत होते ही उनकी मनुष्यायु पूर्ण हो जाय तो मरण की अपेक्षा प्रमत्तसंयत गुणस्थान का जघन्यकाल मात्र एक समय घटित होता है। उत्कृष्टकाल - प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिराज मात्र यथायोग्य एक (मध्यम) अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत ही यहाँ रहते हैं / यह गुणस्थान तीन कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त शुद्ध परिणति सहित शुभोपयोगरूप है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy