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________________ प्रमत्तविरत गुणस्थान ____151 यही प्रमत्तसंयत दशा है। सातवें की अपेक्षा छठवाँ गुणस्थान निम्नस्तर का है; अत: वह नीचे की ओर गमन होते समय प्राप्त होता है। __ नीचे की ओर गमन का अर्थ प्रमत्तसंयत अवस्था मुनि अवस्था ही नहीं है; अथवा वह भ्रष्ट मुनि अवस्था है - ऐसा भी नहीं है / मुनिजीवन ही ऐसा होता है कि जिसमें ध्यान रहित अवस्था होना उसका व्यवहारस्वरूप कहलाता है, उसे शुभोपयोग भी कहते हैं और यह शुभोपयोग, शुद्धोपयोग से भिन्न व निम्नकोटि का है। 59. प्रश्न : क्या छठवें गुणस्थान में आर्तध्यान भी होता है ? उत्तर : हाँ, छठवें गुणस्थान में आर्तध्यान होता है; परन्तु वह मुख्यरूप से शुभभावरूप होता है और कदाचित् अशुभोपयोगरूप भी हो सकता है; तथापि वह भी हेयबुद्धि से होता है / निदान नामक आर्तध्यान इस गुणस्थान में नहीं होता। 60. प्रश्न : चौथे अविरतसम्यक्त्व और पाँचवें देशविरत गुणस्थानों में स्वानुभूतिरूप शुद्धोपयोग होता है। चौथे, पाँचवें गुणस्थानों से भी ऊपर के छठवें गुणस्थान में मात्र शुभोपयोग ही होता है, शुद्धोपयोग नहीं; यह बात कैसी ? उत्तर : चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शनरूप धर्म की उत्पत्ति होती है, वह करणलब्धि के बिना नहीं होती। अत: चौथे गुणस्थान की उत्पत्ति के पूर्व मिथ्यात्व अवस्था में ही जीव आत्मध्यान का बुद्धिपूर्वक प्रयास करता है और भेदविज्ञान से यथार्थ तत्त्वज्ञान की भावभासनापूर्वक शुद्धोपयोग के काल में ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में शुभ, अशुभ और शुद्ध तीनों उपयोग होते हैं। तथा जिसप्रकार चतुर्थ गुणस्थान से शुद्धोपयोग के साथ पंचम गुणस्थान में आगमन होता है। वैसे ही पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज शुद्धोपयोग से ही सातवें गुणस्थान में गमन करते हैं। / ___ चौथे या पाँचवें गुणस्थानवर्ती साधक जीव उपरिम गुणस्थानों में गमन न करते हुए भी भूमिकानुसार शुद्धोपयोग की प्राप्ति करते रहते हैं;
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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