________________ 144 गुणस्थान विवेचन 1. प्रमत्तसंयत में संज्वलन तथा नोकषायों का तीव्र उदय होता है। 2. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में संज्वलन काय चौकड़ी तथा नोकषायों का मंद उदय रहता है। 3. अपूर्वकरण गुणस्थान में संज्वलन तथा नोकषायों का मंदतर उदय रहता है। 4. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में संज्वलन तथा नोकषायों का मंदतम उदय होता है। 5. सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में मात्र सूक्ष्म लोभ का ही उदय रहता है, अन्य किसी कषाय-नोकषायों का उदय नहीं रहताः क्योंकि शेष सब कषायों की उदय-व्युच्छित्ति नौवें में ही हो जाती है। वास्तव में तो साधकरूप मुनिजीवन में मात्र संज्वलन और नोकषायों के उदय का ही खेल है। अन्य अनंतानुबंधी आदि तीनों कषायों का तो भावलिंगी मुनिजीवन में उदय तथा तत् जन्य परिणामों का सतत अभाव ही रहता है। मुनिजीवन में कषाय तो मात्र कणिकारूप में ही विद्यमान रहती है। (देखिये, प्रवचनसार गाथा 5, 246 व 254 की तत्त्वप्रदीपिका टीका) प्रथम गुणस्थान से लेकर चौदह गुणस्थानों में कषाय के स्वरूप का सामान्य कथन निम्नप्रकार है - 1. मिथ्यात्व से मिश्र गुणस्थानपर्यंत के तीनों गुणस्थानों में कषाय सुमेरूपर्वत के समान है; क्योंकि अनंतानुबंधी आदि चारों कषायें अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान हैं / वे संसार को बढ़ाने का ही काम कर रही हैं। 2. अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में कषाय महापर्वतरूप रह जाती है; क्योंकि अनंत संसार का कारण अनंतानुबंधी का अभाव हो गया है। अतः कषायों की शक्ति आंशिक क्षीण हो गई है। 3. देशविरत गुणस्थान में कषाय मात्र पर्वतरूप रह जाती है; क्योंकि उदय मात्र दो कषाय (प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन) चौकड़ी का ही है; और वे भी नाशोन्मुख हो गई हैं; तथापि जीव के पुरुषार्थ की कमी से उनका अस्तित्त्व है। 4. प्रमत्तसंयत से सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानपर्यंत, पाँचों गुणस्थानों में सकलचारित्र के सद्भाव में उत्तरोत्तर नष्ट होता हुआ संज्वलन कषाय तथा