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________________ 145 प्रमत्तविरत गुणस्थान नोकषायों का उदय यथाख्यातचारित्र में तारतम्यरूप से बाधक है। 5. उपशांत मोह गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत के चारों गुणस्थानों में और गुणस्थानातीत सिद्धावस्था में भी मात्र वीतराग भाव ही रहता है, कषायों का सर्वथा अभाव ही है। प्रमत्तसंयत शब्द का स्पष्टीकरण - प्रमत्त + संयत = प्रमत्तसंयत / प्र = प्रकृष्ट; मत्त = मदयुक्त/असावधान; संयत = संयम। ___ संकल संयमरूप वीतरागता प्रगट हो जाने से संयत हो जाने पर भी संज्वलन कषाय और नोकषायों के उदयवश विकथा आदि पंद्रह प्रमादों में हेयबुद्धि से प्रवृत्ति होने के कारण स्वरूप में असावधान वृत्ति हो जाने से प्रमत्तसंयत है। “कुशलेषु अनादरः प्रमादः” (सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ 289) कुशल कार्योंआत्मकल्याणकारी कार्यों में अनादर-असावधानी प्रमाद है। विकथा - स्त्रीकथा, भोजनकथा, राज्यकथा और चोरकथा/ अवनिपालकथा। कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ / विषय - स्पर्शनेंद्रियादिक के स्पर्श, रस, गंध आदि 5 विषय / निद्रा और स्नेह - ये पंद्रह प्रकार के प्रमाद हैं। इनके ही उत्तर भेद 37500 होते हैं। 55. प्रश्न : क्या ये पंद्रह प्रमाद भावलिंगी मुनिराज के जीवन में भी होते हैं ? उत्तर : हाँ, पंद्रह प्रमाद छठवें भावलिंगी मुनिराज के होते हैं। इसकारण छठवें गुणस्थान का नाम ही प्रमत्तविरत है। इसका विवरण - ___ चारों विकथाओं में प्रथम क्रम स्त्रीकथा का है। जब मुनिराज प्रथमानुयोग का शास्त्र लिखते हैं अथवा प्रसंगवश उपदेश में श्रोताओं को वैराग्य पोषक कहानी में किसी चक्रवर्ती की पटरानी के सौंदर्य का वर्णन करते हैं तो उन्हें स्त्रीकथाजन्य प्रमाद हो जाता है। चरणानुयोग के उपदेश में यह पदार्थ भक्ष्य है, श्रावक को खानेयोग्य है, यह पदार्थ अभक्ष्य है; ऐसा भोजन सम्बन्धी कथन करने में, लिखने में अथवा विचारने में अथवा गुरु के समक्ष आहारचर्या के समय लगे हुए दोषों की बात करके प्रायश्चित्त आदि देने-लेने में भोजनकथाजन्य प्रमाद घटित होता है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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