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________________ 142 गुणस्थान विवेचन 53. प्रश्न : जीव जिस परिणाम में रहता है, उसे उस परिणाम की महिमा आती है न ? ___ उत्तर : ऐसा बिल्कुल नहीं है। नारकी जीव तेतीस सागर काल पर्यंत सातवें नरक में रहता है और प्रत्येक समय में नरकगति के दुःखों से छूटना चाहता है। सम्यग्दृष्टि चक्रवर्ती 96 हजार रानियों के राग और छह खंड के परिग्रह परिणामों के साथ जीवन को हेय बुद्धि से बिताते हैं; तथापि उन संयोगों और संयोगीभावों से छूटने की छटपटाहट मन में सतत ही बनी रहती है। सम्यग्दृष्टि संयोग और संयोगी भावों में जल से भिन्न कमलवत् रहते हैं। मुक्तिगत सिद्ध जीव भी भूत काल में अनादिकाल से मिथ्यात्व के कारण कुसंस्कारों में रहते आये थे; परंतु उन्हें जब मिथ्यात्व आदि विकारों से रहित अपने सहज शुद्ध आत्मस्वभाव की उपादेयता उत्पन्न हुई तब ही वे सम्यग्दृष्टि हुये थे। किसी भी मिथ्यादृष्टि को यदि सम्यग्दृष्टि होना है तो उसे भी अपने वर्तमानकाल में विद्यमान मिथ्यात्व भाव व उसके विषय को बुद्धिपूर्वक हेय करके अपने व्यक्त ज्ञान-श्रद्धान में मात्र त्रिकाली सहज निज शुद्धात्मस्वभाव की ही महिमा की स्वीकृति व प्रतीति करना ही सम्यग्दृष्टि होने का एक मात्र उपाय है / सम्यक्त्व की उत्पत्ति का अन्य कोई उपाय है ही नहीं। इसी विषय को स्पष्ट समझाने के लिए ग्रंथाधिराज समयसार शास्त्र गाथा 186 द्वारा आचार्यश्री कुंदकुंद ने अत्यंत सुबोध तथा मौलिक शब्दों में आसन्न भव्य जीवों को शुद्ध होने की सलाह दी है। शुद्ध आत्मा को जानता हुआ/अनुभव करता हुआ जीव शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्मा को जानता हुआ/ अनुभव करता हआ जीव अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है। अस्तु ! प्रकरण तो प्रमत्तसंयत गुणस्थान का चल रहा है। आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 32 में प्रमत्तविरत गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - संजलण-णोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो वि य, तम्हा हु पमत्तविरदो सो।।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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