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________________ प्रमत्तविरत गुणस्थान महाव्रतादि की उपादेयता भावलिंगी मुनिजनों को बिल्कुल ही नहीं रहती; क्योंकि उनका मुख्य लक्ष्य तो सतत पूर्ण शुद्धता को प्राप्त करने का ही रहता है। छठवें गुणस्थान में भावलिंगी मुनिराज अप्रमत्तसंयत से आते तो प्रत्येक अंतर्मुहूर्त में; लेकिन जब-जब छठवें में आते हैं तो शीघ्र ही सातवें अप्रमत्तसंयत दशा में ही जाने का बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ करते हैं; प्रमत्त दशा में जमे रहने का नहीं। __अन्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जिसे प्रमत्तसंयत (शुभोपयोग) की महिमा आ जाती है तो वह जीव नियम से मिथ्यात्वी हो जाता है। श्रावक अथवा मुनिराज किसी भी साधक जीव को अपने त्रिकाली निज शुद्धात्मा की उपादेयता छूटकर किसी भी शुभाशुभ परिणाम या बाह्य मन-वचन-कायरूप क्रिया की महिमा/उपादेयता आ जाती है तो उनका मोक्षमार्ग नियम से छूट जाता है; ऐसा निश्चितरूप से समझना चाहिए। ___तीन कषाय चौकड़ी के अभाव में शुद्ध परिणतिरूपवीतरागता सदा होने पर भी 28 मूलगुणों आदि के पालन काशुभ परिणाम ही छठवाँ गुणस्थान है / ___ श्रावक के चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में और पाँचवें देशविरत गुणस्थान की ग्यारह प्रतिमाओं में शुभ-अशुभ और शुद्ध - इन तीनों उपयोगों में से अधिक काल तो शुभोपयोग में या कदाचित् अशुभोपयोग में जाता है; परंतु श्रावक के ज्ञान-श्रद्धा में तो त्रिकाली निज शुद्धात्मा की ही उपादयता रहती है तथा उसका ही आश्रय (ध्यान) करने का पुरुषार्थ रहता है। श्रावक मुख्यता से सामायिक के काल में स्वभाव के आश्रय से शुद्धोपयोग का ही प्रयास करते रहते हैं; परंतु सामायिक के काल के अतिरिक्त समय में कदाचित् अशुभोपयोग अथवा बुद्धिपूर्वक शुभोपयोग के बाह्य कार्य भी करते हुए दिखाई देते हैं। वैसे ही भावलिंगी मुनिराज के जीवन में शुद्धोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग का काल हमेशा दो गुणा रहता है; तथापि उन्हें बहुमान/महिमा/उपादेयता शुभोपयोग की अणुमात्र भी नहीं रहती है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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