________________ 130 गुणस्थान विवेचन जो चारित्र सकल चारित्र नहीं है, उसे देशचारित्र कहते हैं। भेद - ग्यारह प्रतिमाओं की अपेक्षा देशविरत गुणस्थान के ग्यारह उपभेद हैं, जो इसप्रकार हैं - दर्शनप्रतिमा, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, दिवामैथुनत्याग या रात्रिभोजनत्याग, ब्रह्मचर्य , आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्ट त्यागप्रतिमा। __उद्दिष्टत्यागप्रतिमा के भी दो भेद हैं - (1) एक वस्त्रधारी श्रावक ऐलक और (2) दो वस्त्रधारी श्रावक क्षुल्लक - इन प्रतिमाओं का सामान्य स्वरूप नाटक समयसार के चौदहवें अधिकार के 58 वें छन्द में शास्त्रकार के शब्दों में निम्नानुसार दिया है - संजम अंश जग्यौ जहाँ, भोग अरुचि परिणाम / उदय प्रतिज्ञा कौ भयौ, प्रतिमा ताको नाम / / संयम का अंश प्रगट होना, परिणामों का भोगों से विरक्त होना और प्रतिज्ञा का उदय होना, इसको प्रतिमा कहते हैं। उक्त दोहे में निम्न तीन विषय बताये गये हैं - (1) संजम अर्थात् चारित्र का अंश प्रगट हुआ है। दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त वीतरागता ही यहाँ निश्चय चारित्र है। (2) विशिष्ट आंशिक वीतरागता व्यक्त होते ही उसी समय स्पर्शनादि पांच इंद्रियों के स्पर्शादि विषय संबंधी भोगों से विरक्ति/अरुचि का भाव उत्पन्न हुआ। . (3) प्रतिज्ञा का उदय अर्थात् पंचेंद्रियों के भोगों से अरुचिरूप भाव के कारण भोग का त्याग करने के लिए बुद्धिपूर्वक व्रत लेने का जो शुभभाव हुआ, वही व्यवहार प्रतिमा है। जैनधर्म भावप्रधान है / आत्मा मात्र भाव ही करता है; अत: भाव के अनुसार क्रिया में भी. परिवर्तन हुए बिना नहीं रहता। (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 279 देखिए) तथापि बाह्य क्रिया के अनुसार भाव में परिवर्तन होने का नियम नहीं है।