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________________ देशविरत गुणस्थान ____129 प्रत्याख्यानावरण कषाय कर्म के उदय काल में अर्थात् निमित्त से पूर्ण संयमभाव प्रगट नहीं होने पर भी सम्यग्दर्शनपूर्वक, अणुव्रतादि सहित तथा दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त होनेवाली वीतराग दशा को देशविरत गुणस्थान कहते हैं। उक्त परिभाषा में “प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय काल में' ऐसा वाक्य है तथा आगे कहा है कि “पूर्ण संयमभाव प्रगट नहीं होने पर भी।" इन कथनों का अर्थ यह हुआ कि प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में आंशिक वीतरागतारूप देशसंयम होता है। अणुव्रतादि श्रावक के शुभोपयोगरूप व्रतों के पालन का भाव प्रत्याख्यानावरण कर्म के उदय का कार्य है। यह विचारणीय है कि अणुव्रतादिके पालन का भाव औदयिक भाव है; जो कर्म के उदय के निमित्त से होता है, वह वीतरागभावरूप निश्चयधर्म कैसे हो सकता है ? जो कर्मोदय के निमित्त से होगा, वह तो शुभ अथवा अशुभभावरूप विभाव ही होगा, वह वीतरागभावरूप धर्म नहीं हो सकता। / व्रतपालन के शुभ परिणाम व बाह्य क्रिया को तो उपचार से व्यवहार धर्म कहा है। इसे व्यवहार धर्म भी इसलिए कहा है कि इसके साथ में दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक आंशिक वीतरागरूप निश्चय धर्म होता है। चौथे गुणस्थान से ही आंशिक वीतरागतारूप ज्ञानधारा/धर्मधारा प्रारंभ हो गई है; चौथे में रागधारा अर्थात् कर्मधारा विशेष अधिक थी। अब देशविरत गुणस्थान में वीतरागधारा बढ़ गई है और रागधारा चौथे गुणस्थान की अपेक्षा कम हो गयी है। नाम अपेक्षा विचार - विरताविरत, संयमासंयम, देशसंयम, देशचारित्र, इत्यादि अनेकनाम पाँचवें गुणस्थान के लिए हैं। पंचम गुणस्थानवर्ती त्रस हिंसा से विरत है और स्थावर हिंसा से अविरत रहता है, अतः इसका विरताविरत नाम भी सार्थक है। बारह प्रकार की अविरति में से आंशिकरूप से संयम का पालन करते हैं और शेष असंयम है; ऐसा जिसका जीवन हो, उसे संयमासंयमी कहते हैं।' 1. धवला पुस्तक 1, पृ. 176
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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