________________ मर्यादित विषयवाला नहीं कहा जा सकता / कारण यह है कि मर्यादा के माप का निश्चय कौन करेगा कि यह जानने में यहाँ तक ही सीमित है किन्तु अधिक या कम नहीं? जैसे दर्पण सम्मुख जो कुछ प्रस्तुत होता है, उन सब का प्रतिबिंब उसमें पड़ता है, वैसे ही विश्व में जो भी ज्ञेय पदार्थ हैं, ज्ञान उन्हें जान सकता है / परन्तु जिस प्रकार छोटे छबड़े के नीचे ढके हुए दीपक का प्रकाश छेद में से जितना बाहर आता है, उतना ही वह बाहर के पदार्थ को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार कर्म से आच्छादित जितनी मात्रा में आत्मा का ज्ञान-प्रकाश, कर्मआवरण दूर होने से प्रगट होता है, उतनी मात्रा में 'वह' ज्ञेय वस्तु जान सके / सम्पूर्ण आवरण हट जाने पर सर्वज्ञता यानी समस्त ज्ञेय पदार्थो का ज्ञान स्पष्टतः प्रगट हो जाता है / इस ज्ञेय में भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल के सकल जीवों के व सर्व जड़ पदार्थो के समस्त भाव ज्ञात हो जाते हैं / जीव के मूल स्वरूप में :- (1) अनंतज्ञान है, (2) अनंतदर्शन है, (3) अनंत-सुख है, (4) क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र अर्थात् वीतरागता है, (5) अक्षय-अजर-अमर स्थिति है, (6) अरूपीत्व है, (7) अगुरुलघु स्थिति है (8) अनंत वीर्यादिलब्धि हैं / ___ सूर्य के तुल्य जीव में ये आठ मूल तेजस्वी स्वरूप हैं / किन्तु बादल ढके हुए सूर्य के समान अथवा खान में मिट्टी से लिपटे हुए रत्न के समान जीव आठ प्रकार के कर्म-पुद्गलों से ढ़का हुआ