________________ सर्वज्ञता क्यों? :- अपने ज्ञान-स्वभाव के कारण आत्मा जड़ से पृथक् है / जैसे जैसे आत्मा पर से आवरण दूर होता है, वैसे वैसे ज्ञान प्रगट होता जाता है / दर्पण के समान ज्ञान का स्वभाव ज्ञेय को ग्रहण करने का है अर्थात् ज्ञेय के अनुसार परिणत होने का है / जब कोई आवरण अब शेष नहीं, तो यह स्वाभाविक है कि समस्त ज्ञेय पदार्थ ज्ञान का विषय हों / "ज्ञान इतना ही जान सकता है, इससे अधिक नहीं" इस प्रकार ज्ञान की सीमा बांधना तर्कहीन है / 'मन कितना चिंतन कर सकता है उसकी सीमा हम क्या बांध सकते है? अतः केवलज्ञान में अतीतअनागत-वर्तमान, सूक्ष्मस्थूल समस्त लोकालोक-वर्ती समस्त ज्ञेय का प्रत्यक्ष होता है / ' __ऐसे सर्व प्रत्यक्ष ज्ञान का जो स्वामी है वह जगत् के सत्य तत्त्व तथा सच्चा मोक्षमार्ग बता सकता है / वही परम आप्त पुरूष माना जाएगा / उसी का वचन अर्थात् आगम प्रमाणभूत हो सकता है / तदुपरांत उसके वचनों का पूर्णतः अनुसरण करने वाले भी आप्त माने जा सकते है / जैसे कि गणधर महर्षि / उनके आगम प्रमाणभूत ये पांच ज्ञान प्रमाण है / इनमें अवधिज्ञानादि तीन 'प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, तथा मति, श्रुत ये दो ‘परोक्ष प्रमाण' है / किन्तु यह मान्यता पारमार्थिक दृष्टि से है / व्यवहारिक दृष्टि से, इन्द्रियों द्वारा होनें वाला साक्षात् ज्ञान यह प्रत्यक्ष माना जाता है / यह पारमार्थिक प्रत्यक्ष 32 31968