________________ (36) प्रमाण और जैन शास्त्र पदार्थ का ज्ञान दो प्रकार से होता है :- (1) किसी भी अपेक्षा लगाए बिना प्रदार्थ को समग्र रूप से देखना यह 'प्रमाण ज्ञान' है | और (2) वस्तु को अमुक अपेक्षा से इस के अंश को आगे कर देखना, यह 'नयज्ञान' है / हमने आंखें खोलकर घडा देखा, यह घडे का समग्र रूप से बोध है, यह घडे का प्रमाण ज्ञान है / किन्तु नगर के बाहर जाकर याद आया कि 'घडा नगर में रह गया' यह वस्तु को समग्रता नहीं किन्तु अंश को आगे कर बोध हुआ, क्यों कि यों तो 'घडा घर में भी रहा है, 'घडीची पर भी रहा है', 'अपने अवयव में भी विद्यमान है,' ऐसे भी अनेक अंश घडे में हैं, इन में से अमुक अपेक्षा या दृष्टि से देखते हुए बोध हुआ कि 'घडा नगर में रह गया' यह अंश रुप से ज्ञान है / इसको 'नय ज्ञान' कहा जाता है / सारांश, समग्र रूपेण बोध को 'सकलादेश' अर्थात् प्रमाण कहते हैं / अंश रुपेण बोध को 'विकलादेश' अर्थात् 'नय' कहते हैं / नय ज्ञान भी सच्चा है, प्रमाण भूत है, किन्तु किस रुप से वस्तु दर्शन करते हे? समग्र रूप से? या अंश रूप से? इसके हिसाब से ज्ञान को प्रमाण और नय इन दो में विभक्त किया / प्रमाण और नय ये ज्ञान के ही दो प्रकार है / 32 3078