________________ तो ज्ञात होगा कि इनका भोग विषाक्त किंपाकफल के भक्षण के समान परिणाम में कटु है / __(iv) यह शरीर अवश्यमेव सहज विनाशी है / और शरीर-इन्द्रियां पराधीन भी है / एवं संतोष-रूपी अमृतों स्वाद के विरोधी है / सत्पुरूषो ने इसलिए इन सब को असार कहा है / (v) विषयो से प्रतीत होनेवाला सुख भी बालक द्वारा लार (राल) चाटने से अनुभूत होनेवालें काल्पनिक दूध के अस्वाद के समान सुखाभास है / विवेकी पुरूष को इसमें आस्था न होनी चाहिए / इसलिए विरति ही श्रेयस्कर है (vi) गृहवास जलते हुए घर के मध्यभाग के समान है / जिसमें जलती हुई इंद्रियाँ पुण्य रूपी लकड़ी को जला देता हैं व अज्ञानपरम्परा का धुंआ फेला देती हैं / इस आग को धर्म मेघ ही शान्त कर सकता है / अतः धर्म में ही प्रयत्नशील रहने योग्य है / इस प्रकार यह सोचना चाहिए कि राग के साधन कल्याण के विरोधी हैं / ऐसे विचार परम आनन्द की अनुभूति कराते हैं / 7. 'भवविचय' :- अहो! (i) यह संसार कितना दुःखद कि यहां स्वकृत कर्म का फल भोगने के लिए बार बार संसार में जन्म लेने पडते हैं / अरहट की घटी के समान मलमूत्रादि अशुचि से भरे हुए माता के गर्भ के कोटर में कितना गमना-गमन करना पड़ता है / फिर स्वकृत कर्म के दारूण दुःख भुगतने पड़ते हैं, इसमें कोई PR 2860