________________ निर्मल तप से वांछित सिद्धि होती है, व स्वर्ग-अपवर्ग की प्राप्ति होती जीव संसार के अंदर क्यों परिभ्रमण कर रहा है? कहना होगा कि आहार संज्ञा, विषय संज्ञा, कषाय संज्ञा आदि से ही परिभ्रमण करने का चालू है / प्रथम आहारसंज्ञा ही अन्य संज्ञाओं का पोषक तत्त्व है / पहले इस को ही अंकुश में लेनी चाहिए / इसको अंकुश में लाने के लिए तप यह रामबाण उपाय है / तप करना याने चाहे छोटा-सा बियासन ही क्यों न किया जाय, उसमें भी दिन में बारबार कुछ न कुछ मुंह में डालने की (संज्ञा) मनोवृत्ति लुप्त होती है / इससे पर्वतिथि आने पर उसकी अवगणना नहीं होती, उस पर उद्विग्नता नहीं आती, किन्तु भावना बढती है, 'चलो ! अच्छा हुआ पर्वतिथि आई, आज आहार-संज्ञा को अधिक अंकुश में लेने का सुनहरा अवसर प्राप्त होगा / ' तपधर्म का कितना बड़ा महत्त्व है कि स्वयं तीर्थंकर परमात्मा आभ्यन्तर तप तत्त्व, चिंतन, ध्यान, कायोत्सर्गादि तो करते ही थे, फिर भी उन्हें उपवासादि बाह्यतप भी बहुत किया / त्रिलोकनाथ महावीर परमात्मा ने 12|| वर्ष में 11 / / वर्ष जितने उपवास किए थे / बाह्यतप क्यों? इन्हीं आहारादिसंज्ञाओं को एवं देहाध्यास (देहममता-राग) को नष्ट करने के लिए / तब सोचिए प्रखर मनोबली व उच्चशुद्ध भाव में लीन महावीर प्रभु जैसे को भी उपवासादि तप 2 244