________________ यह धर्म का बीज है / 'बीजं सत्प्रशंसादि' किसी भी गुण या क्षमादि धर्म आत्मा में उत्पन्न करना चाहते हो तो, पहले इसका बीजारोपण किया जाए / बीज है सम्यक् प्रशंसादि (आकर्षण-अनुमोदन-अहोभाव)। जैसे कि क्षमाधर्म के लिए महावीर प्रभु की क्षमा की प्रशंसा आदि की जाए | यह है क्षमाधर्म का बीजारोपण बीज-पन | धर्मबीज से अंकुर उगता है / धर्म की उत्कट अभिलाषा यह अंकुर है / बाद धर्म -अभ्यास हो; यह उस पर पत्र, पुष्प है / अंत में धर्म सिद्ध होता है; यह फल आया, पाक आया / ___ परमेष्ठी-नमस्कार में यह आकर्षण क्रमशः कार्यान्वित बनता है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, ये पांच परमेष्ठी हैं। (ii) 'अरिहंत' प्रथम परमेष्ठी है / वे विचरते हुए देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्मा हैं / 'अरिहंत' का अर्थ है:- जो सुरासुरेन्द्रों को भी पूजा के व अष्ट प्रातिहार्य की शोभा के अर्ह है-योग्य है / ये 18 दोषों से रहित व 12 गुणों से युक्त होते हैं / वे 18 दोष इस प्रकार हैं :-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अंतराय कर्म के उदय से क्रमशः 1 अज्ञान, 1 निद्रा, और दानादि 5 अंतराय, ये 7; दोष तथा मोहनीय कर्म के उदय से ये 11 दोष,-मिथ्यात्व, राग, द्वेष, अविरति, काम,-ये 5, एवं हास्य, शोक, हर्ष, उद्वेग, भय और जुगुप्सा, ये 6 = 11 + 7 = 18 / ज्ञानावरण आदि 4 घाती कर्मो के नाश से इन अठारह दोषो को त्याग देने से वे वीतराग सर्वज्ञ बनते हैं / 17280