________________ संसार के अंत में बादर (स्थूल) मन-वचन-काययोग का तथा सूक्ष्म वचनयोग-मनोयोग का निरोध करनेवाली, 'अप्रतिपाति' अर्थात् अभी तक नष्ट न हुई, किन्तु चलती हुई सूक्ष्म काययोग की एकाग्र आत्मप्रक्रिया / (यहां 'ध्यान' चिन्तनरूप नहीं किन्तु योग की एकाग्रतारूप है। केवल-ज्ञानीको सब प्रत्यक्ष होने से ध्यान करने जैसा कुछ रहता नहीं है / वास्ते यहां चिन्त्वन-एकाग्रता नहीं किन्तु योग-एकाग्रता रहती है) यह 13 वें गुणस्थानक के अंत में होता है / (4) व्युच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति :- जिसमें "क्रिया' अर्थात् सूक्ष्म काययोग भी 'व्युच्छिन्न' अर्थात् नष्ट हो गया है। यह 14 वे गुणस्थानक की शैलेशी-अवस्था में होता है। यहाँ पांच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण जितने काल में सर्वकर्मो का नाश हो जाने से मोक्ष हो जाता है। (6) कायोत्सर्ग : यह उत्कृष्ट आभ्यन्तर तप है / इसमें 'अन्नत्थ' सूत्र बोलकर काय को स्थान (स्थिरता) द्वारा, वाणी को मौन द्वारा, और मन को नियत सम्यग्ध्यान द्वारा स्थिर किया जाता है / कायोत्सर्ग में इस अखंड ध्यान करने के अतिरिक्ति प्रतिज्ञापूर्वक काया और वाणी को भी चेष्टा रहित स्थिर करना पडता है / यह इसकी विशेषता है। इस से अन्तराय आदि सर्व पाप-कर्मो का अपूर्व क्षय होता है / कायोत्सर्ग एक प्रकार का व्युत्सर्ग (त्याग) है / व्युत्सर्ग दो प्रकार से होता है - (1) द्रव्य से, (2) भाव से। 2 14500