________________ वैसे अघाती कर्म चार है, - (1) वेदनीय कर्म (2) आयुष्य कर्म (3) नाम कर्म और (4) गोत्र कर्म / वेदनीय कर्म से अलबत्ता अनंतसुख रुक जाता है, व वेदनीय कर्म शाता-अशाता उत्पन्न करता है, फिर भी वह परमात्मपन का बाधक इसलिए नहीं है कि वेदनीय होने पर भी आत्मा परमात्मपन में यानी अनंतज्ञान-दर्शन-चारित्र में रमणता करती रहती है / 8 करण : जैन शास्त्रो कहते हैं कि ऐसा नहीं होता है कि जिन कर्मो का बन्ध होता हैं, वे सब कर्म उसी रूप में उदय में आते हो / दूसरे शब्द में कहें तो उनकी प्रकृति, स्थिति और रस में फर्क भी पड़ जाता है / इसका कारण यह है कि जीव जैसे कर्म का बंधन करता है, वैसे संक्रमण आदि भी करता है / इस बंधन-संक्रमण आदि के करनेवाले आत्म-वीर्ययोग को करण कहते हैं / करण आठ है-१. बंधन करण, 2. संक्रमण करण, 3. उद्वर्तना करण, 4. अपवर्तना करण, 5. उदीरणा करण, 6. उपशमना करण, 7. निधत्तिकरण और 8. निकाचना करण | (1) बन्धनकरण - इसमें उस उस आश्रव के योग से होने वाली कर्मबन्ध की प्रकिया का समावेश हैं / (2) संक्रमणकरण - संक्रमण अर्थात् एक प्रकार के कर्म-पुद्गल 1128