________________ (5) अनिन्हव - ज्ञान-दाता का और ज्ञान का अपलाप न करना / (6-7-8) व्यंजन, अर्थ, उभय - यह 'व्यंजन' सूत्रों के सूत्र के अक्षरों, पदों व आलापकों (पैराग्राफों) का उच्चारण करना / पदार्थ, भावार्थ, तात्पर्यार्थ यह 'अर्थ' तथा सूत्र-अर्थ दोनों यथास्थित शुद्ध व स्पष्ट रीति से पढ़ना, याद करना, उनका चिंतन, मनन करना यह 'उभय' / (2) दर्शनाचार - इसके भी आठ प्रकार हैं / (1) निःशंकित - किसी भी प्रकार की शंका किए बिना जिनोक्त वचन को मानना / (2) निःकांक्षित - मिथ्याधर्म, मिथ्या मार्ग, मिथ्यात्त्व-पर्व-उत्सवादि (3) निर्विचिकित्सा - धर्म के फल पर लेश मात्र भी संदेह न करते हुए धर्म की साधना करना / (4) अमूढदृष्टि - मिथ्यादृष्टि के चमत्कार, पूजा, प्रभावना देखकर मूढ न बनना, और यह विचार करना कि 'जहां मूल सम्यग्दर्शन का ही ठिकाना नहीं, उसका क्या मूल्य?' (5) उपबृंहणा - सम्यग्दृष्टि आदि के सम्यग्दर्शन आदि गुण एवं उनके दान-शील-तप आदि धर्म की प्रशंसा करना, उसे प्रोत्साहन देना / SON 106