________________ (355) संपन्न // सुगुणनर // इंजियनोगतजी निजसुखजजी / जवचारक उदविन्न // सु० // 1 // व्यत्नावसाचीसरधा धरी। परि. हरी शंकादिदोष // सु० // कारणकारज साधन श्रादरी घरी ध्यानसंतोष // सु०॥ध०॥२॥गुण पर्यायें वस्तुपरिखतां। शीखउजयजमार // सु०॥ परिणतिशक्तिस्वरूप में परिणमी। करता तसुव्यवहार // सु० ॥ध० // 3 // लोकसन्न वितिगिला वारता। करता संयमवृद्धि // सु० // मूल उत्तर गुण सर्वसंजारता / धरताआतमशुद्धि // सु० ध०॥४॥ श्रुतधारी श्रुतधरनिश्रारसी। वशकस्खा त्रिक जोग // सु० // श्रन्यासी अनिनवश्रुतसारना / अविनाशी उपयोग // सु० ॥ध // 5 // जव्यनावाश्रवमलटालता / पालता संयमसार ॥सु०॥साची जैनक्रियासंन्नालता / गालता कमविकार // सु० // ध० // 6 // सामायिकथादिक गुणश्रेणिमें / रमता चढतेरे नाव // सु० // तीनलोकथी जिन्नत्रिलोकमें / पूजनीयजसुपाव // सु० ॥ध० // 7 // अधिकगुणी निजतुट्यगुणीयकी / मलता ते मुनिराज // सु० // परमसमाधिनिधि लवजलधिना / तारणतरण जहाज // सु० // ध० // // समकितवंत संयमगुणईहता। ते धरवासमरथ / संवेगपक्षी नावें शोलता / कहेतासाचोरे अर्थ // सु० ॥ध ए॥ आपप्रशंसायें नविमाचता। राचता मुनिगुएरंग // सु० // अप्रमत्तमुनिश्रुततत्त्व पूबवा, सेवे जासुअनंग // सु० ॥ध० // 10 // सईहणा श्रागमअनुमोदता / गुणकर संयमचाल // सु० // विवहारें साची ते साचवे // आयतिलालपिगण // सु० // ध० // 11 // 5क्करकारीथीअधिकाकहे।