________________ (157) चजगद्गुरुं॥ श्रीपद्मप्रजनामानं / वासुपूज्यं सुरैर्नतं // 4 // शीतदं शीतलं लोके / श्रेयांसं श्रेयसे सदा // कुंथुनाथं च वामेयं / श्रीश्रजिनंदनं वितुं // 5 // जिनानां नामनिर्बद्धः पंचषष्टिसमुन्नवः // यंत्रोयं राजते यत्र / तत्र सौख्यं निरंतरं // 6 // यस्मिन् गृहे महानतया / यंत्रोयं पूज्यते बुधैः // नूतप्रेतपि. शाचादि / जयं तत्र नविद्यते // 7 // सकलगुणनिधानं यंत्रमेनं विशुद्धं // हृदयकमलकोशे धीमतां ध्येयरूपं / जय तिलकगुरोः श्रीसूरिराजस्य शिष्यो, वदति सुख निदानं मोक्षलक्ष्मीनिवास // // इति चतुर्विंशतिजिनानां अष्टकं संपूर्णम् // // अथ आत्मरक्षास्तोत्रं लिख्यते // // परमेष्ठिनमस्कारं / सारं नवपदात्मकं // आत्मरक्षाकरं वज्र / पंजरानं स्मराम्यहं // 1 // नमो अरिहंताएं // शिरस्कं शिरसि स्थितं / उनमो सबसिझाएं / मुखे मुखपटंबरं // // नमो आयरिआणं / अंगरक्षातिशायिनी // नमो उवज्कायाणं / आयुधं हस्तयोदृढं // 3 // उनमो लोएसबसाहूणं / मोचके पादयोः सुने // एसोपंचनमुक्कारो शिलावज्रमही तसे // 4 // सबपावप्पणासणो / वप्रोवज्रमयोवहि / / मंगलाणंचसवेसि / खादिरंगारखातिका // 5 // स्वाहांतंच पदं शेयं / पढमंहवश्मंगलं // वोपरिवज्रमयं पिधानं देहरक्षणे // 6 // महाप्रनावारदेयं / कुञोपत्रवनाशनी // परमेष्ठिपदोद्भूता, कथितापूर्वसूरिभिः // 7 // यश्चैवं कुरुते रक्षां / परमेष्ठिपदैःसदा // तस्य न स्यानयं व्याधिराधिश्चापि कदाचन // // इति आत्मरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् //