________________ तृतीयसर्गः ___ ग्याकरण-यज्वा इष्टवानिति /यज +छनिए ( भूनाथें ) / श्रोत्रियसास्कृत श्रोत्रियाणाम् अधीनं करोतीति अधीनकरणे सात् प्रत्यय / श्रोत्रियः 'श्रोत्रियश्छन्दोऽधीते' 52 / 84 इति निपातनात्साधुः / वजत्रा कृत्वा वजस्याषीनं देयं कृत्वेति अधोनकरणे त्रा प्रत्ययः / अध्याधरतिहिंसाकर्मा तत्पतिषेधः' (यास्कः ) अन्त्यम् अन्ते मवमिति अन्त+यत् / भनुवाद-यज्ञ किये ( अतएव ) आश्रयवों श्रोत्रिय लोगों के अधीन ( दान में ) धन-सम्पद किये हुए वह राजा नल यशा में ( हविनरूप में विबुधों = देवताओं के अधीन किये ) आज्य (पूत ) की तरह हो राज्य को विबुधों ( विद्वानों ) के अधीन करके पहले को तो शेष खाता है और पिछले को अशेष खाता है ( भोगता है )-यह कैसे आश्चर्य को बात है // 24 // टिप्पणी-यहाँ मो कवि का 'मूड' वयाकरणी ही बना हुआ है। ऐसा लगता है जैसे उसने 'तदधीन-वचने' (54.54 ) तथा 'देये च त्राच' (5/4 / 55 ) इन दो सत्रों के उदाहरण हेतु हो यह श्लोक बनाया ह।। यहाँ 'आज्योपमया' में उपमा और 'पूर्व शेषम्', 'अन्त्यम् अशेषम्' में विरोधाभास है / चाण्डूपण्डित तया विद्याधर को यहाँ मानी हुई उत्प्रक्षा हमारी समझ में नहीं आ रही है / विबुध शब्द में श्लष है। शब्दालंकारों में 'राज्यो' 'राज्य' 'तो' 'तश्री:' 'शेष' 'शेष' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। यहाँ 'श्रोत्रियतात्कृतश्रीः' और 'विबुधव जत्रा कृत्वा' में पुनरुक्ति की शंका उठ सकता है, क्योंकि श्रोत्रिय और विबुध एक ही तो हुआ करते हैं। किन्तु हमारे विचार से इनमें कुछ भेद है। श्रोत्रियों को तो यज्ञों में दक्षिणा-रूप में राजा देता था ही किन्तु श्रोत्रियों से अतिरिक्त भो तो विद्वान् होते हैं, जिनका कार्य क्षेत्र यज्ञातिरिक्त हुआ करता है / उन्हें भी राजा खूब देता था, अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है। दारिद्रयदारिद्रविणौववरमोघमेवव्रतमर्थिसार्थे / सन्तुष्टमिष्टानि तमिष्टदेवं नायन्ति के नाम न लोकनाथम् // 25 // अन्वयः-दारिद्रय वः अथि साथै अमोघ-मेवव्रतम् , सन्तुष्टम् , इष्टदेवं तम् लोकनाथम् के नाम इष्टानि न नाथन्ति / _____टीका-दरिद्रस्य भावो दारिद्रयं निर्धनत्वम् तत् दारयति नाशयतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) यो द्रविपौषः (कर्मधा० ) द्रविणस्य धनस्य ओषः राशिः ( 10 तत्पु० ) तस्य वर्षः वृष्टिभिः (10 तत्पु० ) पुष्कल-दानैरित्ययः अर्थिनां याचकानां सार्थ समूहे ( 10 तत्पु० ) अमोघम् अविफलम् सफलमित्यर्थः ( स० तत्पु०) मेष-व्रतम् ( कर्मधा० ) मेघस्येव व्रतं नियमः ( उपमान तत्पु० ) यस्य तषामूतम् ( ब० वी० ) मेवो यथा जलवृष्टिं करोति तथा चायं धन-वृष्टिं करोताति मावः, सन्तुष्टं दानैः प्रसन्नम् , इष्टाः यजिकमींकृता अर्थात् यज्ञ द्वारा प्रसादिता देवाः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतम् (ब० व्री० ) तं लोकानां नाथम् जन-स्वामिनम् ( 10 तत्प.) के नामेति कोमलामन्त्रणे इष्टानि अभिलषित-वस्तूनि न नाथयन्ति न याचन्ते, अपि तु सर्व एव नाथन्तीति काकुः / नलः सर्वेषामेव मनःकामनाः पूरयतीति भावः // 25 // म्याकरण-दारिद्रयम् दरिद्रस्य भाव ति दरिद्र+व्यञ् / ०दारी ताच्छील्ये पिनिः / वर्षः