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________________ द्वितीयसर्गः हेतुना उत् उद्गता तृट् पिपासा येषां तथाभूताः ( प्रादि ब० बी० ) सन्तः स्वेषां रुचा कान्त्या स्वपद्मरागच्छटयेत्यर्थः (10 तत्पु० ) अरुणया रक्तया जिह्वातुल्ययेति भावः, जिह्वाया अपि रक्तत्वात, पताकया वैजयन्त्या निशि नक्तं सुधाकरं चन्द्रमसं बहुधा बहुभिः प्रकारैः लिलिहुः आस्वादयामासुः / दिनपर्यन्तं स्येण तप्ताः तृषिताश्च यदालया जिहानिमया पताकया रात्रौ शीतोपचाररूपेण चन्द्र लिलिहुरिति भावः / अनेन गृहाप्पामत्युच्चत्वं सूच्यते // 99 // ___ व्याकरण-माणिक्यमयाः प्राचुर्ये मयट् / समीयुषा सम् +ई+क्वसु (लिडर्थ में) ( 'उपेत्यस्यातन्त्रत्वादनुपसर्गस्यान्थोपसर्गस्य च भवति' ) / बहुधा बहु+धा (विधायें ) / रुक तट रुच् / तृष् + क्विप् ( भावे ) / अनुवाद-जिप्स (नगरी) के पद्मरागों के बने गृह दिनभर सम्पर्क में आये हुए सूर्य के कारण प्यासे बने, निज (लाल) से लाल हुई ( जिह्वा-जैसी) पताका द्वारा रात में चन्द्रमा को तरह-तरह से चाटते जाते रहते थे // 6 // टिप्पणी-पद्मरागमय घर इतने ऊँचे थे कि जिनकी पताकार्य रात को चाँद तक को छूती रहती थीं। इस पर कवि-कल्पना यह है कि मानो वे पताका-रूपी जिह्वा से सुधाकर की सुधा चाट रहे हों। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है, जो गम्य है, वाच्य नहीं, पताकाओं का चन्द्रमा से सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताने में असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति है, श्वेत पताकार्य पद्मरागों की लाली से लाल बनी हुई है, इसलिए तद्गुण है, गृहों पर धूप से प्यासे बने हुए व्यक्तियों का व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति है; अत्यधिक सम्पदा-वर्णन से उदात्त है, चन्द्र को चन्द्र न कहकर सुधाकर ( अमृत की खान ) कहना साभिप्राय होने से परिकरार है-इस तरह इन समी का यहाँ संकरालङ्कार है / 'गया' 'कया' 'मया' में 'प्रया' की तुक से पदगत अन्त्यानुपास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / कवि ने इस श्लोक में अलंकृत शैली को अच्छी छटा दिखाई है। लिलिहे स्वरुचा पताकया निशि जिह्वनिमया निशाकरम् / श्रितमर्ककरैः पिपासु यन्नृपसद्मामलपद्मरागजम् // 10 // अन्वयः-अमलपद्मरागजम् यन्नृपसम अर्क करैः श्रितम् ( अतएव ) पिपासु सत् स्व-चा ( अतएव ) जिह्वानिया पताकया निशि सुधाकरम् लिलिहे। टीका-अमला निर्मला ये पद्मरागा रक्तवर्णमणयः ( कर्मधा० ) तेभ्यो जायते इति तपोतम् ( उपपद तत्पु० ) यस्या नगर्या नृपस्य राशो मीमस्य सम गृहम् (प० तत्पु० ) अर्कस्य सूर्यस्य करैः किरणः ( 10 तत्सु०) श्रितं सम्पृक्तम् अत एव पिपासु तृषितं सत् स्वस्य पात्मन रुक् कान्तिः (10 तत्पु०) यस्मिन् तथाभूतया (ब० वी०) प्रतिफलितनिजकान्तिरक्तयेत्यर्थः अत एव जिहानिमया जिह्वातुल्यया पताकया वैजयन्या निशि रात्रौ सुधाकरं चन्द्रमसं लिलिहे आस्वादयामास // 10 // व्याकरण-पिपासु पातुमिच्छरिति पा+सन् +ङः ( कर्तरि ) / अनुवाद-निर्मल पद्मराग मणियों से निर्मित जिस नगरी का राजमहल सूर्य-किरणों से सम्पत्तः और ( इसीलिए ) प्यासा बना हुआ, अपनी कान्ति वाली जिह्वा-जैसी पताका द्वारा रात में चन्द्रमा को चाटता था / / 100 /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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