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________________ द्वितीयसर्गः टिप्पणी-यहाँ कवि ने ऐसे श्लिष्ट शब्द रखे हुए हैं, जो महल और शिव-दोनों ओर लग जाते हैं। किन्तु प्रकरणवशात् यहाँ ये शब्द प्रस्तुत राजमहल के प्रतिपादन करने में ही नियन्त्रित हो जाते हैं। बाद को यह शाब्दी व्यञ्जना ही है, जो अप्रस्तुत शिव-रूप अर्थ बताती है और उसको राजमहल को समकक्षता में रख देती है अर्थात् राजमहल शिव समान है-यह अभिव्यजना कर देती है। इसे हम मल्लिनाथ की तरह उपमाध्वनि ही कहेंगे. जैसे इस सर्ग के पहले श्लोक में हमने कहा है। किन्तु विद्याधर ने यहां श्लेषालंकार कहा है। श्लेष में तो दोनों अर्थ प्रस्तुत होते हैं। उदात्तालंकार पूर्ववत् आ ही रहा है। शब्दालंकारों में 'मन्दि' 'मिन्दु' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। बहुरूपकशालमञ्जिकामुखचन्द्रेषु कलकरकवः / यदनेककसौधकन्धराहरिभिः कुक्षिगतीकृता इव // 83 // अन्वयः-यदनेककसौधकन्धराहरिमिः बहु.. चन्द्रेषु कलङ्क-रङ्कवः कुक्षिगतीकृता इव (आसन् ) / टीका-यस्याः नगर्या अनेके एवानेकका बहवः ( स० तत्पु०) सौधानां हाणाम् (10 तत्पु०) कन्धरासु कण्ठप्रदेशेषु मध्यभागेष्वित्यर्थः ये हरयः (कृत्रिम ) सिंहाः ( स० तत्पु० ) तः, बहु अत्यधिक रूपमेव रूपकं सौन्दर्य (कर्मधा०) यासां तथाभूताः (ब० वी०) याः शालभजिकाः स्तम्मादिषु निर्मिताः पुत्तलिकाः ( कर्मधा० ) तासां मुखानि वदनानि (10 तत्पु० ) एव चन्द्रा चन्द्रमस: (कमंधा० ) तेषु कलङ्का अङ्काः ( स० तत्पु० ) एव रङ्कवो मृगाः (कर्मधा० ) चन्द्रो मृगाको मवतोति प्रसिद्धमेव, कुक्षौ उदरे गता इति कुक्षिगता अकुक्षिगताः कुक्षिगताः सम्पद्यमानाः कृता इति कुक्षिगतीकृता मक्षिता इत्यर्थ इव, अर्थात् सौधानां स्तम्मेषु पाषाणादि-रचितानां पुत्तलिकानां, मुखानि निमल. वात् निष्कलंकत्वाच्च तादृशाश्चन्द्रा वासन् येषु कलंकरूपेण सम्माविता मृगाः सौष-कन्धरागतकृत्रिम-सिंहैः मक्षिताः // 83 // व्याकरण-अनेकक अनेक+कप् (स्वार्थे ) / रूपकम् रूप+कप ( स्वार्थे ) / कुक्षिगती. अत्र चि-प्रयोगः। अनुवाद-जिस ( नगरी) के महलों के मध्य भागों में स्थित अनेक ( कृत्रिम ) सिंहों द्वारा बहुत सुन्दर पुतलियों के मुख-रूपी चन्द्रमाओं के कलंक रूपी मृग खा डाले गये जैसे लगते थे // 43 // टिप्पणो-यहाँ मुखों पर चन्द्रत्वारोप और कलकों पर मृगत्वारोप होने से रूपक है, जिसका 'मशिता इव' इस उत्प्रेक्षा के साथ संकर है। शब्दालंकार 'लङ्क' 'रक' में (रलयोरमेदात् ) यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। बलिसद्मदिवं स तथ्यवागुपरि स्माह दिवोऽपि नारदः / अधराथ कृता ययेव सा विपरीताजनि भूविभूषया // 84 // अन्वयः-तथ्यवाक नारदः बलि-सम-दिवम् दिवः अपि उपरि आह स्म, अथ भू-विनूषया यया अधरा कृता इव सा विपरीता अजति / टोका-तथ्या सत्या वाक वायो ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० ब्रो०) नारदः बलेः प्रहाद
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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