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________________ 40 नैषधीयचरिते दिशा से आ रहो असह्य हवा को ऐसा समझ रहा हूँ मानो वह मलयाचल के सर्प-समूह की विष. मरी फुफकार हो // 57 // टिप्पणी-यहाँ 'विरहानलेधसा' में रूपक है; पवन पर फूरकारमयत्व को कल्पना करने के कारण उससे उत्प्रेक्षा का उत्थान हो रहा है, जो वाचक न होने से प्रतीयमान है, इस तरह दोनों का अङ्गाङ्गिमाव संकर है / 'कालकलत्रदिग्मवः' साभिमाय विशेषण है; क्योंकि इससे यह घोतित होता है कि जो काल का पुत्र है, वह भी काल-जैसा ही विषम और घातक होगा। इस तरह यह परिकराहंकार है। शब्दालंकारों में 'विष' 'विष' तथा 'मयो' 'मयो' में यमक, 'याहि' योहि में छक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रतिमासमसौ निशापतिः खग! संगच्छति यहिनाधिपम् / किमु तीव्रतरैस्ततः करैर्मम दाहाय स धैर्यतस्करैः // 58 // अन्वयः-हे खग, असौ निशापतिः प्रतिमासम् यत् दिनाधिपम् संगच्छति ततः स तीव्रतः (अत एव ) धैर्य-तस्करैः करैः मम दाहाय किमु ? __टीका-हे खग पक्षिन् हंस ! असो निशाया: राध्याः पतिः स्वामी चन्द्र इत्यर्थः ( 10 तत्पु०) मासे मासे इति प्रतिमासम् ( अव्ययाभाव ) यत् दिनस्य अधिपं स्वामिनम् ( 10 तत्पु० ) सूर्य संगच्छति प्रविशति तन: सूर्य-सङ्गात् स चन्द्रस्तीवरैः अतिशयेन तीक्ष्णः ( अत एव ) धैर्यस्य धृतेः तस्करैश्चोरैः करैः किरणेमम नलस्य दाहाय प्लोषपाय किमु ? मासे मासे चन्द्रमाः सूर्य प्रविश्य ततश्च तीक्ष्णतामादाय मां दहति अन्यथा चन्द्रकिरणानां शोतत्वादिति भावः // 58 // ज्याकरण-संगच्छति सम् गम् से आत्मनेपद अकर्मक में ही होता है, यहाँ सकर्मक है, अतः परस्मैपद हुआ। तीव्रतरैः ताव+तर (भतिशय में) / तस्करैः यास्काचार्य के अनुसार तत् करोतीति, तत् किम् ? पापम् निपातन से तकार का सकार / चोरी पाप-कर्म ही तो है। अनुवाद-हे खग ( हस ) प्रतिमास ( अमावास्या को ) चन्द्रमा जो मूर्य से मिलता रहता है, उससे ही अत्यन्त तीक्ष्ण ( बने ), धैर्य भंग कर देने वाले किरणां द्वारा वह मुझे फूक डालने हेतु मिलता रहता है क्या ? / / 58 / / टिप्पणी-अमावास्या का अर्थ है 'अमा = सह सूर्येण चन्द्रो वसति यत्र' / इस दिन चन्द्रमा सर्य में प्रवेश किये रहता है। इस पर कवि की कल्पना यह है कि स्वयं शीतल होने के कारण नल का कुछ मी भपकार न कर सकने पर चन्द्रमा सूर्य से ताप लेकर आता है, तब जलाता है। लोक में भी हम देखते हैं कि जो स्वयं किसो बुराई करने में असमर्थ होता है, वह दूसरों से सहायता लिया करता है। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक 'किमु' शब्द है। लेकिन विद्याधर ने यहाँ अनुमानालंकार माना है। शब्दालंकार 'मास' 'मसौ' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। कुसुमानि यदि स्मरेषवी न तु वज्रं विषवल्लिजानि तत् / हृदयं यदमुमुहनमूर्मम यच्चातितरामतीतपन् // 59 // अन्वयः-यदि स्मरेषवः कुसुमानि, न तु वज्रम् , तत् ( तानि ) विष-वल्लिजानि ( सन्ति ) बत अमूः मम हृदयम् अतितराम् अमूमुहन् , अतोतपन च /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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