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________________ पश्चमसर्गः दृश्यमान-पदार्थानाम् नील-पीतादिना नामसम्बन्ध लुम्पति, द्रव्याणां नीलो घटः, श्वेतः पटः इति नाम न तथ्यं, वाक्कल्पनेवेति घोषयति यथोक्तम्-'वाचारम्मषं विकारो नामधेयम्' इति, द्रव्याण्यपि स्वप्नवत् मिथ्या-कल्पितानि, ययोक्तं-ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या इति // 135 / / ___ व्याकरण-इष्टम् Vष तथा /यज्+क्तः (मावे): भाहलादिनी आइलादयतोति प्रा./हलाद्+पिच्+णिन् +डीप् / श्राख्या आख्यायतेऽनयेति आ+/ख्या+अ+टाप् / कीर्तिः कीर्तनमिति /+क्तिन् ( मावे ) ऋ ईर् आदेश। पुनती/पुश् + + ङोप् / अद्वयम् न द्वयम् दो अवयवो अत्रेति द्वि+तयप , तयप् को अयच् / आदेशनात् 'आ+ दिश+ ल्युट् ( भावे)। अनुवाद-(हे नल, ) हमारा इष्ट ( अभीष्ट ) लक्ष्य करके तुम्हारी जो दिव्य आनन्द देने बाली धर्म-रूप प्रतिश्रुति ( प्रतिज्ञा ) हुई है, उसे आज श्रुति ( वेद ) की प्रतिश्रुति (प्रतिद्वन्दी अति) बनाकर अन्वर्थ नाम वाली कर दो। फिर तो तीनों लोकों को पवित्र करती हुई तुम्हारी कीर्ति श्वेत रूप का अद्वैत उत्पन्न कर देने के कारण पदार्थों के साथ लगने वाले काला, पीला, लाल, हरा-इन नामों के सम्बन्ध को मटियामेट कर दे अर्थात् समी को श्वेत कर दे, अति मी हमारे इष्ट ( यश ) को लक्ष्य करके ( उदात्तादि ) स्वरों से (श्रोताओं को ) आनन्द देने वाली, धर्म-प्रतिपादक, तथा ( गुरुपरम्परा से ) सुनी जाने के कारण अन्वर्थ नाम वाली होती है, जो तुम्हारे द्वारा पढ़ी जातो हुई, तीनों लोकों को पवित्र करती हुई, ( ब्रह्म-विषयक ) शुद्ध अद्वैत का उपदेश करने से (दृश्यमान) पदार्थों के काला पोला लाल, हरा-नामों का सम्बन्ध मिटा देती है / / 135 // _ टिप्पणी-प्रतिश्रुति प्रतिज्ञा को, और साथ हो अति-प्रतिद्वन्दी-अतिसदृश को मी कहते हैं। इसी श्लेष को लेकर कवि ने यहाँ अपने मस्तिष्क का व्यायाम दिखाया है, जो क्लिष्टता पैदा कर गया है / इसीलिए टीकाकार मिन्न 2 अर्थ कर रहे हैं श्लोक का फलितार्थ यह निकला कि 'हे नल, जिस तरह वेद सत्य है, उसी तरह तुम अपनी पूर्व प्रतिज्ञा को सत्य करके दिखा दो, जिससे अनन्त काल तक तुम्हारा यश जगत में छाया रहे। विद्याधर के अनुसार यहाँ श्लेषमुखेन बिभिन्न अर्थों का अभेदाध्यवसाय होने से अतिशयोक्ति है। मल्लिनाथ यश के श्वेत रूप द्वारा सभी को श्वेत कर देने में तद्गुणालंकार कहते हैं। तद्गुष्प वहाँ होता है, जहाँ कोई वस्तु अपना गुण छोड़कर दूसरे का गुण ग्रहण कर ले। 'प्रति प्रति' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / छन्द यहाँ शार्दूलविक्रीडित है, जिसमें 19 अक्षर होते हैं। इसकी गुण व्यवस्था अथवा स्वरूप इस प्रकार है-'सूर्याश्वर्यदि मः सजो सततगः: शार्दूलविक्रीडितम्' अर्थात् म, स, ज, स, त, त, ग और सूर्याश्व 7 में यति / यं प्रासूत सहस्त्रपादुदभवत्पादेन खञ्जः कथं ___स च्छायातनयः सुतः किल पितुः सादृश्यमन्विष्यति / एतस्योत्तरमद्य नः समजनि त्वत्तेजसा लङ्घने साहस्त्रैरपि पङ्गुरघिमिरमिव्यक्तीमवन्मानुमान् / / 136 // अन्वयः-सहस्रपात् यम् प्रासून; स छायातनयः पादेन खजः कथम् उदमवत् 1 किल मुतः पितः
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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