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________________ पञ्चमसर्गः टीका-हेनल, भरतः शकुन्तलायाः दुष्यन्तस्य च सुतः पुनश्च अर्जुनः कार्तवीर्यश्च वैन्यः पृथुति दिनद) हवेति तद्वत् स्मृतीतः कृतः स्मृतिगोचरीकृत इति यावत् (स० तत्पु०) अपि प्रवसते प्रवासं कुर्वते देशान्तरं गच्छते इति यावत् अभीष्टं वान्छितं ददातीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) त्वम् स्वस्य आत्मन: गमनम् अस्माकं दूतत्वेन दमयन्ती प्रति प्रस्थानम् ( 10 तत्पु० ) तस्य अफलताम् निष्फलताम् (10 तत्पु० ) न फलं यस्य तथाभूतस्य ( (नञ् ब० वी० ) मावः तत्ता ताम यदि शङ्कसे सम्मानयसि तत् तहिं निखिलम् सर्वम् मङ्गलम् यात्रासमये प्रातर्वा कार्यसिद्धयर्थ क्रियमाणं 'वैन्यं पृथुम्' इत्यादि रूपेण स्मरणम् खलु निश्चितं निष्फलं व्यर्थ भवेदितिशेषः कार्यसिद्धयर्थ तव नाम स्मरन् प्रत्येकात्री सिद्धिं लभते, स्वयमेव दौत्ययात्रायां यद्यसिद्धिं शङ्कसे, तहिं लोकः क्रियमाणं युष्मदादिस्मा णरूपं मङ्गलं व्यर्थ प्रसज्येते नि मावः // 134 // व्याकरण--स्मृतिः स्मृ+क्तिन् ( भावे ) वैन्यः वेनस्यापत्यं पुमान् इति वन+यम् / प्रवसते +/वस्+शत+च०। अभीष्टम् अमि+ इ +क्तः ( कर्मणि)। अनुवाद-हे नल, भरत, अर्जुन और वैन्य ( पृथु ) भादि की तरह स्मरण किये जाते हुए मो यात्रा पर जाने वाले मनुष्य को अभीष्ट ( सिद्धि ) प्रदान करने वाले तुम यदि अपने ( दूतरूप में ) जाने को निष्फलता की शका करते हो, तो वह सब मंगल निष्फल पड़ जायेगा ( जिसे लोग तुम्हारा नाम लेकर किया करते हैं ) // 134 // टिप्पणी-भरत-जिनके नाम से हमारे देश का नाम भारत पड़ा है, दुष्यन्त और शकुन्तला के महाप्रतापो पुत्र थे, जिनकी कहानो कालिदास के शकुन्तला नाटक में प्रसिब ही है। अर्जुन-ये पाण्डुपुत्र अर्जुन से भिन्न हैं / इन्हें सहस्रार्जुन कहते हैं / वे बड़े पराक्रमी राजा हुए / भगवान् दत्तात्रेय के वरदान से इन्हें सहस्र भुजायें मिली थीं। ये बड़े धर्मात्मा और न्यायप्रिय थे। इन्होंने सहस्त्र यश किये ये। ये रावण के सम-सामयिक थे जिसे इन्होंने पकड़कर अपने यहाँ कैद कर रखा था / अन्त में हर क्षत्रियों की तरह परशुराम के हाथों इनका भी संहार हुआ। वैन्य-वेन के पुत्र होने से इन्हें वैन्य कहते हैं। नाम इनका पृथु था / इनका पिता बड़ा दुष्ट रहा, जिसके अत्याचारों से विवो कॉप उठो थी। फलतः ऋषि-मुनियों को मिलकर उसका संहार करना पड़ा। पृथु के सिंहासनारूढ़ होते हो इन्होंने प्रजा में सुख शान्ति स्थापित की; पृथिवी को हरामरा करके दुहा, जो पिता के अत्याचारों से सूखो पड़ी हुई थी। देखिए कालिदास-"यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दोग्धरि दोहदक्षे। मास्वन्ति रत्नानि महौषधीश्च पृथूपदिष्टाम् दुदुहुर्धरित्रीम् / / " कुमार० 112 इनसे पहले सर्वत्र अराजकता फैली हुई थी। पृथिवी में यही सबसे पहले राजा हुए, इसीलिए इनके नाम से ही पृथिवी का नाम पृथिवो पड़ा। यात्रा पर जाते समय अथवा प्रातःकाल इनके नामों का स्मरण मांगलिक माना गया है, जैसे-"वैन्यं पृथु हैहयमर्जुनच, शाकुन्तलेयं भरतं नलं च / रामं च यो वै स्मरति प्रमाते, तस्यार्थलामो विजयश्च हस्ते" / / ध्यान रहे कि पीछे श्लोक 129 को तरह परवती त्रेतायुग से सम्बन्ध रखने वाले सहस्रार्जुन को कवि यहाँ सत्ययुग में नल के साथ बता रहा है जिसमें काल.. मन्विति का अभाव अखर रहा है / यहाँ मी पृर्वोक्त श्लोक की तरह हमें कल्प मेद की कल्पना
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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