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________________ नैषधीयचरिते म्याकरण-एमि //+लट् उ० पु० / मुहूर्तम् कालात्यन्तसंयोगे दि०। प्रभवितास्मि प्र+/+लुट् उ० पु०। ईदृश इसके लिर पीछे श्लोक 106 देखिए / रहस्यम् रहसि मवमिति रहस+यत् / ब्रतब ञ्+लोट म० ब० सारा वाक्यार्थ इस क्रिया का कम बना हुआ है। अनुवाद-जो मैं इस ( दमयन्ती) के विरह के कारण सचमुच उन्माद में मटक जाया करता हूँ, तथा थोड़ी देर के लिए ( कभी 2 ) मूर्छा खा जाता हूँ, ऐसी अवस्थाओं वाला वह मैं कंसे आप लोगों का रहस्य छिपा सकूँगा?-यह कहो तो सही / / 108 / / टिप्पणी-यह सच है कि उन्मादावस्था में-जाने अनजाने-हृदय की रहस्यात्मक बात मुख से बाहर निकल जाया ही करती हैं जबकि दूत को सब कुछ गुप्त रखना पड़ता है। यहाँ दौत्य को अयोग्यता के कारण उद्भ्रम और मोह बताने से काव्यलिङ्ग है। 'मामि' 'मेभि' तथा 'मुहु' 'महं' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यां मनोरथमयीं हृदि कृत्वा यः श्वसिम्यथ कथं स तदन। मावगुप्तिमवलम्बितुमीशे दुर्जया हि विषया विदुषापि / / 109 // गावयः-यः अइम् मनोरथमयीम् याम् हृदि कृत्वा श्वसिमि, अथ सः अहम् तदने भाष. म अवलम्तुिम् कथम् ईशे ? हि विदुषा अपि विषयाः दुर्जयाः ( भवन्ति ) / टोका-यः अहम् नलः मनोरथमयीम् मनोरथ रूपाम् सकल्लरूपामिति यावत् याम दमयन्तीम् सद हृदये कृत्वा धृत्वा श्वसिमि प्राणिमि जीवितोऽस्मीत्यर्थः, अथ अनन्तरम् सः अहम् नलः र: दमयन्त्याः भने समक्षम् (10 तत्पु०) भावानाम् कामजनितस्वेदस्तम्भादि-सात्तिकमावानाम् गुप्तिम् गोपनम् ( 10 तत्० ) अवलम्बितम् कर्तुमित्यर्थः कथम् केन पकारेण ईशे शक्नोमि, न कथमगेति काकुः हि यतः विदुषा पण्डितेन अपि विषया इन्द्रियार्थाः रूपादयः दुर्जयाः दुःखेन जेतुं शक्या भवन्तीति शेषः / सतत तद्-ध्यानं प्रकुर्वतो मम तत्साक्षात्कारे सति विकारोद्वात् मवद्-त्य-न्हिवो दुःशक इति भावः।। 106 / / म्याकरण-मनोरथमयीम् स्वरूपार्थे मयट् + डीप् / गुप्तिम गुप+क्तिन् ( मावे ) / ईशे Vश+लट् उ० ए० / दुजंयाः दुर्+/नि+खल / अनुवाद-जो मैं मनोरथमयी जिस ( दमयन्ती ) को हृदय में रखकर साँस ले रहा हूँ, फिर वह मैं उसके आगे ( अपने स्वेद-स्तम्म आदि सात्विक ) भावों को कैसे छिपा सकता हूँ ? कारण यह कि विद्वान् तक भी विषयों को नहीं जीत सकते हैं / / 106 / / टिप्पणी-विषयों पर विजय पाना सचमुच विद्वानों तक के लिए भी बड़ा कठिन होता है / गीताकार का भी कहना है-'यततो यपि कौन्तेय, पुरुषस्य विपश्चितः। इन्द्रियाणि प्रमा. थीनि हरन्ति प्रसभं मनः / / ( 260 ) इस स.बभौम सामान्य सत्य से पूर्व प्रतिपादित नलगत काम-मावों का गोपनामाव-रूप विशेष बात का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है। विदुष पि में अपि शन्द द्वारा साधारण लोगों की तो बात ही क्या' यह अर्थ निकलने से अर्थापत्ति भी है। शब्दालंकार वृत्यनुपाय है /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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