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________________ नैषधीयचरिते . अनुवाद-जिस ( मनुष्य ) का जन्म याचक के मनोरथ की पूर्ति के लिए नहीं, उससे यह पृथिवी अत्यन्त माराकान्त है, वृक्षों से नहीं, पर्वतों से नहीं, और समुद्रों से नहीं / / 88 / / टिप्पणी-कृपण लोग पृथिवी के लिए जितने भार बने हुए हैं, उतने वृक्षादि नहीं, क्योंकि वृक्ष छोगों को पुष्प, फल, लकड़ी आदि देते हैं, पर्वत कितनी ही जड़ी-बूटियों देते हैं और समुद्र कितने ही रत्नादि देते हैं। ये लोकोपकारक होते हैं। धनियों को भी अपना धन लोकोपयोग में लगाना चाहिए। विद्याधर के अनुसार अदाता का भू-मारत्वेन असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताने से असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति है। हमारे विचार से 'भारत्व' को वृक्षादि से हटाकर अदानी पुरुष पर स्थापित करने से परिसंख्या है। परिसंख्या वहाँ होती है, जहाँ समान रूप से प्राप्त किसी पदार्थ को एक स्थान से हटाकर कारप-विशेष से अन्यत्र स्थापित किया जाता हो। 'मान' 'मान' में यमक और अन्यत्र वृत्पनुप्रास है। मा धनानि कृपणः खलु जीवन् तृष्णयार्पयतु जातु परस्मै / तन्त्र नैष कुरुते मम चित्रं यत्तु नार्पयति तानि मृतोऽपि // 89 // अन्वयः-कृपणः जीवन् तृष्पया परस्मै जातु धनानि खलु मा अर्पयतु एव तत्र भम चित्रम् न कुरुते; यत् तु मृतः अपि तानि नार्पयांत, (तत्र मम चित्रम् कुरुते ) / टीका-कृपणः अतिलुन्धः जीवन प्राणान् धारयन् तृष्णया अतिलोमेन परस्मै अन्यस्मै याचकेभ्य इत्यर्थः ( जातावेकवचनन् ) जातु कदापि धनानि वित्तानि खनु निश्चयेन मा भर्पयतु न ददातु, एष कृपणः तत्र याचकेभ्यो धनानपणे मम चित्रम् आश्चर्यम् 'आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्' इत्यमरः / न कुरुते न तनुते, तु किन्तु यत् यस्मात् मृतः मृत्युं प्राप्तः अपि तानि धनानि न अर्पयति तत्र मम चित्रं कुरुते इति शेषः। अत्र मृतोऽपि न अर्पयतीति विरोधः मृतस्य चेतनस्वाभावेऽपि क्रियायोगासंभवात, तत्परिहारश्च नृपस्येमानि नाणि तानि करोतोति मरणानन्तरं स्वधनानि नृपाधीनानि करोति / मृतस्य सवमपि धनं राजा स्वायत्तीकरोतीति भावः // 86 // न्यारत-तृष्णा- तृष् +न+टाप् किचच / नार्पयति नृपस्येमानीति नृप+अण् नापि, वानि करोतीति ना+पिच् + लट् ( नामधा० ) / अनुवाद-कजूस जीते जी लोभ के मारे दूसरों को कभी भी धन दे, (मत दे ), ( उसके ऐसा करने में मुझे आश्चर्य नहीं ) किन्तु मरने पर भी जो वह धन नहीं देता है-इससे मुझे आश्चर्य होता है; नहीं, नहीं ( आश्चर्य की कोई बात नहीं ) वह मरने पर धन राजा को दे देता है // 89 // टिप्पणी-कृपण अपने हाथ से कुछ धन नहीं देता है। मर जाता है तो उसे साथ मी नहीं ले जाता है, यहीं छोड़ जाता है, जो बाद को राजा के खजाने में चला जाता है / अतएव जीते जी धन याचकों को दे देना चाहिए। विद्याधर यहाँ इलेषालंकार बता रहे हैं। हम मल्लिनाथ की तरह यहाँ विरोधामास अलंकार कहते हैं / विरोधाभास श्रेष-गमित होता ही है। 'यार्पयतु' 'नार्पयति' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुमास है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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