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________________ पञ्चमसर्गः विमलम् विगतं मलं पङ्कः अथ च पापं यस्मात्तथामृतं ( प्रादि ब० वी० ) निर्मलं निष्पापं चेत्यर्थ: प्रथिनः याचकस्य पाणिः हस्तः एव कमलम् ( कर्मधा० ) तस्या लक्ष्म्याः सम्पदश्च वासः वसतिः (प० तत्पु०) तस्मै वेश्म गृहं (च. तत्पु०) विदधीत कुर्यात् , बुद्धिमता पुरुषेष सम्पत् पात्राय देया, लक्ष्मीदेव्या मन्दिरं चापि निर्मले न तु मलदूषितस्थाने विधीयत इति मावः / / 87 // ___व्याकरण-सङ्करः सम् +/+अप ( भावे ) / अहम् अहंतीति- अह+अच् (कर्तरि ) / माश्रयणाय आ+/श्रि+ल्युट ( भावे ) / वासः वत+घञ् (भावे ) / अनुवाद-पंक ( कोचड़, पाप ) से संपर्क होने के कारण घिनौना कमल श्री ( लक्ष्मीदेवी, धन) के आश्रय हेतु उचित ( स्थान ) नहीं होता है, इसलिए विद्वान् को चाहिए कि वह याचक के निमल ( शुद्ध, निष्पाप ) कर-कमल को एस ( लक्ष्मी, धन ) का निवास स्थान बनावे // 87 // टिप्पणी लक्ष्मी को 'पद्मालया' कहते हैं अर्थात् वह कमल में रहा करती है, किन्तु कमल कीचड़ सना रहता है, वह स्थान उसके हेतु ठीक नहीं है, बिना कोचड़-पाप वाला कमल तो याचक का कर-कमल ही होता है, अत: लक्ष्मी देवी का निवासस्थान-मन्दिर वही ठीक है। भाव यह निकला कि योग्य पात्र को लक्ष्मी-धन का दान देना चाहिए, गन्दे कामों में उसका उपयोग ठीक नहीं जैसा कि धनी लोग करते हैं। यहाँ कवि ने दो विभिन्न लक्ष्मियों-देवी और धन का और विभिन्न पंकों-कीचड़ और पाप का अमेदाध्यवसाय कर रखा है, इसलिए मेदे अमेदातिशयोक्ति एवं पाणिकमलम् में रूपक है जिसके साथ व्यतिरेक भी है। शब्दालंकारों में 'पङ्क' 'सङ्क' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'गहिं' 'मह' 'श्रियः' 'श्रय' 'कमल' 'कमलं' 'वास' 'वेश्म' (सशयोरमेदात् ) में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। याचमानजनमानसवृत्तेः पूरणाय वत जन्म न यस्य / तेन भूमिरतिमारवतीयं न द्रुमैन गिरिमिन समुद्रः // 8 // अन्वयः–यस्य जन्म याच.. वृत्तः पूरणाय न ( मवति ) वत, तेन इयम् भूमिः अतिभारवती, न द्रुमैः, न गिरिभिः, न समुद्रः ( अतिमारवती)। टीका-यस्य पुरुषस्य जन्म उत्पत्तिः याचमानस्य जनस्य याचकस्य (कर्मधा० ) मानसस्य मनसः वृत्तः मावस्य मनोरथस्येत्यर्थः ( उभयत्र 10 तत्पु० ) पूरणाय पूर्तये न भवति वत खेदे, तेन पुरुषेण ( करणेन ) इयम् एषा भूमिः पृथिवी अतिशयेन मारोऽतिमारः (प्रादि स०) अतिमारः अस्यामस्तीति तथोक्ता अत्यधिकमारपूर्णा अस्ति, न दुमैः वृक्षः, न गिरिमिः पर्वतैः, न समुद्रः सागरैः अतिमारवती अस्तीति शेषः / 'व्यर्थम् अदानिनः पुरुषस्य जन्म' तस्मात् दानं कर्तव्यमिति मावः // 88 // व्याकरण-याचमानस्य याच्+शानच् / मानसम् मन एवेति मनस्+अण ( स्वाथें) अथवा मनस इयमिति मनस+अ+डीप , मानसी चासो वृत्तिः ( कर्मधा०) समास में पुंवद्भाव। जम्मन् / अन्+मनिन् ( भावे ) / द्रुमः दुः=शाखाऽस्यास्तीति दु+म (मतुबर्थ)। गिरिः यास्काचार्य के अनुसार 'उगीणों भवतीति / समुद्रः यास्क के ही अनुसार 'समुद्रान्त्येनम् आपः' इति सम्+उत्+VT+मच् ( कर्तरि ) /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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