________________ पञ्चमसर्गः 356 अनुबाद-पृथिवी जिसके सोलहवे माग की मी बराबरी नहीं कर सकती है, ( और ) बी धन एवं प्रापों से भी अधिक महत्व रखती है, वह दमयन्ती मेरे हृदय में रह रही है, किन्तु मेरी अपनी (माहर की वस्तु ) नहीं है / / 82 / / टिप्पणी-कवि नल के हृदय में संशय उत्पन्न करके उसके अन्तर्मावों का विश्लेषण कर रहा है। पृथिवी, धन और प्राणी से भी अधिक दमयन्ती है, किन्तु वह हृदयस्थ ही है, मौतिक रूप में जब तक उसपर अधिकार ही नहीं हुआ तो वह देय कैसे बन सकती है। वैसे अधिकार में आ जाने पर मी स्त्रो देय वस्तु कहीं नहीं होतो / शास्त्रों ने 'देयं दार-सुताद् ऋते।' लिखकर स्त्रोदान का निषेष कर रखा है / विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कहते हैं / हमारे विचार से दमयन्ती पर स्वस्व-स्वपनत्व का आरोप होने से रूपक हो बनेगा। धनादपि, जीवितादपि' में अर्थापत्ति है / 'कला' 'किल' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / संसार में धन से भी अधिक मूल्यवान् जीवित होता है, इसलिए 'धनादपि' का क्रम पहले है, 'जीवितादपि' का बाद को, किन्तु कवि ने क्रम उलट दिया है, अतः यहाँ अक्रमता अर्थ-दोष बन रहा है। मीयतां कथममीप्सितमेषां दीयतां द्रुतमयाचितमेव / तं धिगस्तु कलयन्नपि वान्छामर्थिवागवसरं सहते यः // 83 // अन्वयः-एषाम् अभीप्सितम् कथम् मीयताम् अयाचितम् एव कथम् दीयताम् ? य: वाञ्छाम् कलयन् अपि अर्थि-वागवसरम् सहते, तम् धिक् अस्तु / टीका-एषाम् एतेषाम् इन्द्रादिदेवानाम् अमीसितम् अभिलषितम् कथम् केन प्रकारेष मीयताम् शायताम् एतदभोष्टवस्तुशानं बिना दातुं न शक्यते इत्यर्थः अयाचितम् अपार्थितम् एवं कथम् दीयताम् वितीर्यताम् ? न कथमपीति काकुः यः पुरुषः वान्छाम् इच्छाम् कलयन् जानन् अपि अभौप्तितवस्तुशाने सत्यपि अर्थिनः याचकस्य वाचः वचनस्य अवसरम् समयम् सहते प्रतीक्षते इत्यर्थः यदायं वाचा याचिष्यति तदैव दास्यामोति विचारयतीति मात्रः तम् पुरुषम् धिक् अस्तु विक्रि. यतामसी इत्यर्थः अधमोऽसौ दातेति भावः // 83 / / / व्याकरण-अभीप्सितम् अभि+ आप+सन् क्त ( कमंपि) आ को है / इसके साथ एतेषाम् को 'क्तस्य च वर्तमाने ( 2.3163 ) से षष्ठो और 'मति-बुद्धिः' (2 / 3 / 188) से वर्तमान में क्त। वाञ्छा वान्छ् +अ+टाप् / तम् धिक् धिगर्थ में द्वितीया / अनुवाद-इन ( देवताओं ) के अमीष्ट का कैसे पता लगाया जाय ? बिना मौगो हुई वस्तु कैसे दी जाय ? जो ( व्यक्ति ) अभीष्ट जानता हुआ भो याचक के मुंह से बोलने के समय को प्रतीक्षा किया करता है, उसे धिक्कार हो।। 83 / / टिप्पणी-यहां कवि शास्त्रानुसार दान के तीन प्रकार बता रहा है--"गत्वा यद् दोयते दानं तदनन्तफलं स्मृतम् / " अर्थात् स्वयं याचक के पास जाकर दिया हुआ दान उत्तम दान कहलाता है जो अनन्त फल देने वाता होता है / अपने पास बुलाकर दिया दान मध्यम दान है जिसका फह सहस्र गुण होता है और जो दान याचक के मांगने पर दिया जाता है, वह अधम है, जिसका फल