________________ 350 नैषधीयचरिते अनुवाद--इन्द्र इस तरह वाणी बोलकर चुप हो गया, विशेष ( बात ) नहीं बोला / इन्द्र की इस बोलने की चतुराई पर आश्चर्य नहीं, (क्योंकि ) बचपन से इसका गुरु वृहस्पति जो ठहरा // 7 // टिप्पणी-'हम याचक है' इतना ही कहकर इन्द्र के चुप हो जाने में उसकी चालाको यह थी कि एकदम यदि वह असली वात कह देता तो हो सकता था नल तत्काल उसे इनकार कर देता। इसलिए उसने पहले इतना मात्र कहकर नल के हृदय की थाह लेनी चाही कि देखू उम में क्या प्रतिक्रिया होती है / यदि प्रतिक्रिया अच्छी पाऊंगा तो आगे बढूगा / यहाँ 'अभिधा कुशलव का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है। विद्याधर यहाँ उत्प्रेक्षा कह रहे हैं, जिसे हम नहीं समझ पाए / उन्होंने 'गुरुर्गुरुर् ' छेक माना है, किन्तु यदि प्रथम पाद के 'गिर' को भी ले, तो यहाँ म और र हो बार आवृत्ति अपेक्षित हैं (नैको व्यन्जनसंघस्य सकृत् साम्यम्-सा०६०) इसलिए अन्यत्र को तरह यहाँ मी वृत्त्यनुप्रास के भीतर हो पाएगा। अर्थिनामहृषिताखिललोमा स्वं नृपः स्फुटकदम्बकदम्बम् / अर्चनार्थमिव तच्चरणानां स प्रणामकरणादुपनिन्ये // 79 // अन्वयः-प्राथि...लोमा स नृपः प्रणामकरणात् तच्चरणानाम् अर्चनार्थम् स्फुटकदम्बकदम्बम श्व स्वम् उपनिन्ये। टीका-अर्थिनः याचकस्य नाम्ना अमिधानेन (10 तत्पु० ) अथवा 'अ' इति नाम शमः (कर्मधा० ) तेन हृषितानि विकसितानि, उत्थितानीत्यर्थः ( तृ. तत्पु० ) अखिलानि सर्वाणि लोमानि शरीररोमाणि ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभतः (ब० वी०) रोमा।श्चत इत्यर्थः स नृपः राजा नलः प्रणामस्य नमनस्य करणात विधानात तेषाम् इन्द्रादिदेवतानाम् चरणानां पादानाम (10 तत्पु० ) अर्चनार्थम् अर्चनायै (चतुयेथे अथेन नित्यसमासः) स्फुटिताः विक सताः ये कदम्बाः नीपाः कदम्ब-पुष्पाणीत्यर्थः ( कर्मधा०) तेषाम् कदम्बम् समूहम् इव उपनिन्ये उपआयनीचकार समर्पितवानित्यर्थः। रोमाञ्चितो नलः देवतानां चरणेषु प्रणामं कुर्वन् आत्मशरीरे पूजाकदमकुसुमसमूहमिव समर्पयामासेति भावः / / 79 // व्याकरण-हषित-हृष् +क्तः ( कर्तरि ) विकल्प से इडागम ('हृषेलेमिसु' 72.26 ) / स्फुट स्फुटतोति स्फुट+कः ( कतरि)। प्रणामः प्र+Vनम्+घञ् ( भावे) न कोण। उपनिन्ये उप+/नो+लिट् आत्मने / अनुवाद-'याचक' नाम से पूरी तरह रोमाञ्चित हुआ वह राजा ( नल) ( उन्हें ) प्रयाम करने के कारण उनके चरणों की अर्चना हेतु विकसित कदम्बपुष्प-समूह के समान अपने को भेंट चढ़ा बैठा / / 76 / / टिप्पणी-प्रथम सर्ग के प्रारम्भ में कवि द्वारा नल का याचकों के लिए 'अल्पित-कल्रपादयः' आदि रूप में खींचा हुआ चित्र पाठक देख हो चुके हैं। जब याचक-मात्र के लिए हृदय में इनकी इतनी ऊँची वदान्यता है, तो यदि देवता लोग याचक बनकर आवे, तो कहना हो क्या ? वस्तुतः