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________________ नैषधीयचरिते अनवाद-नक, तुम कहाँ जा रहे हो ?' यह पूछना अनुपयुक्त है, क्योंकि हमारी यहाँ (मूलोक में ) यात्रा शुम हो गई है। तमो तो शोघ फलोन्मुख हमारी उस यात्रा ने तुम्हें यहाँ मार्ग के मध्य में नहीं ला दिया क्या ? // 75 / / टिप्पणी-वैसे कहीं जा रहे व्यक्ति को यह पूछना कि तुम कहाँ जा रहे हो?-बुरा माना जाता है, किन्तु देवताओं को नल के गन्तव्य स्थान के सम्बन्ध में पूछने की आवश्यकता ही नहीं रही, क्योंकि अपना काम बनाने के लिए रास्ते में ही उन्हें वह मिल गया है। विद्याधर ने यहाँ काव्यलिंग ठीक हो कहा है / 'यात्रयात्र' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। एष नैषध! स दण्डभृदेष ज्वालजाबजटिलः स हुताशः। यादसां स पतिरेष घ शेषं शासितारमवगच्छ सुराणाम् // 76 // अन्वयः-हे नैषध, एष स दण्डभृद् ( अस्ति ), एष ज्वाल-बाल-जटिलः स हुताशः ( अस्ति ), एष स यदसाम् पतिः ( अस्ति ), शेषम् च सुराणाम् शासितारम् अधिगच्छ / टीका-हे नैषध नह ! एष पुरःस्थितः स प्रसिद्धः दण्डं निमति धारयतोति दण्डमृद् दण्डधरः यमः ( 'कालो दण्डपर यमः' इत्यमरः) अस्तीति शेषः; एष ज्वालानाम् अचिंषाम् ( 'वह्नयो ालकीलो' इत्यमरः ) जालेन समूहेन ( 10 तत्पु. ) जटिलः जटावान् युक्तः ज्वालाव्याप्त इत्यर्थः स प्रसिद्धः हुताशः अग्निः अस्तीति शेषः, एष अयम् स प्रसिद्धः यादसाम् जलजन्तूनाम् ( यादाप्ति जलजन्तवः' इत्यमरः) पतिः स्वामी समुद्रः जलाधिष्ठातृदेवो वरुप इत्यर्थः अस्तीति शेषः, शेषम् अवशिष्टं च सुराणां देवानां शासितारम् शासकम् इन्द्रमित्यर्थः अधिगच्छ जानीहि / इन्द्रः स्वस्य स्वसायिनाच परिचयं दत्तवानिति भावः / / 76 // व्याकरण-नंषधः इसके लिए पीछे श्लोक 60 देखिए। दण्डभृद् दण्ड+/भृ+क्विप् ( कर्तरि ) / ज्वालः ज्वल+घञ् ( भावे ) / जटिलः जटा अस्यास्तोति जटा+इलच ( मतुबर्थ ) हुताशः इसके लिए श्लोक 68 और सुराः इसके लिए श्लोक 34 देखिए। अधिगच्छ का 'शासितारम्' ही कर्म नहीं है प्रत्युत पूर्वोक्त तीन विशेष्यात्मक वाक्य मी कर्म अर्थात् 'इत्यधिगच्छ' इस तरह सर्वत्र अन्वय है। भनुवाद-हे नल ! ये प्रसिद्ध यम हैं, ये ज्वाला-समूह से व्याप्त प्रसिद्ध अग्नि हैं; ये समुद्रा. 'धिष्ठातृदेव प्रसिद्ध वरुग हैं और अवशिष्ट ( मुझे ) देवताओं का शासक ( इन्द्र ) समझो।। 76 / / टिप्पणी-यहाँ अपना और अपने साथियों का परिचय देते हुए इन्द्र ने उनके जो-जो विशेष्य एवं विशेषष दे रखे हैं वे सभी साभिप्राय हैं / यम न कहकर दण्डभृत् कहने का अभिवायः यह है कि इनका कहना न मानने पर ये दण्ड से सिर फोड़ देने वाले हैं, अग्निको बालाजालजटिल, का अभिप्राय यह है कि कुपित होने पर तो अपनी लपटों से भस्म कर देने वाले हैं, इसी तरह 'यादसा पतिः' और 'सुराणां शासितारम्' को मी साभिप्राय समझिए। साभिप्राय विशेष्य में परिकराङ्कर और सामि प्राय विशेषण में परिकर अलंकार है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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