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________________ पञ्चमसर्गः 341 टिप्पणी--जब कोई अपनी चीज दान में किसी और को दे बैठता है, तो दान के बाद उसपर से उसका स्वस्व समाप्त हो जाता है / देते समय यह कहते ही है-'तुभ्यमहं सम्प्रददे, न मम' / जब देवगण हृदय आश्चर्य को देबैठा, तो हृदय से उसका प्रभुत्व चला जाना स्वाभाविक ही था। भाव यह है कि आश्चर्यचकित हो वे हृदय से कुछ मो न सोच सके कि अब क्या करें, सर्वथा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए / विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह गए हैं। सम्भवतः वे नल के साथ सौन्दर्याद्वैतवादख का अमेदाध्यवसाय मान बैठे हों जो वास्तव में यहाँ है ही नहीं, क्योंकि भारोप-विषय नल यहाँ 'अमुम्' शब्द से अनिगोर्ण-स्वरूप ही है, अतः यहाँ नल पर सौन्दर्याद्वैतवाद का आरोप ही मानना पड़ेगा, जिससे यहाँ रूपक बनेगा अथवा नल पर सौन्दर्याद्वैतवाद के भी साकारस्व की कल्पना करके उत्प्रेक्षा बनेगी और वह मी प्रतीयमान होगी, गम्य नहीं। हाँ हृदयों के साथ प्रभुत्वका सम्बन्ध होने पर मी असम्बन्ध बताने से सम्बन्धे असम्बन्धातिशयोक्ति यदि विद्याधर को विवक्षित हो, तो बाव दूसरी है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। प्रेयरूपकविशेषनिवेशः संवदगिरमराः श्रुतपूर्वैः। एष एव स नलः किमितीदं मन्दमन्दमितरेतरमूचुः॥ 66 // अन्वयः-अमराः श्रुत-पूजः, (सम्प्रति ) संवदद्भिः प्रेयरूपक-विशेष-निवेशैः ‘स नलः एष एव किम् ? इति इदम् परस्परम् मन्द-मन्दम् ऊचुः / . टीका-अमराः इन्द्रादयो देवाः पूर्व श्रुतैः इति श्रुत-पूजः ( सुम्सुपेति समासः ) सम्प्रति च संवदनिः सदृशैः मवद्भिः मिलद्भिरिति यावत् प्रियरूपस्य भावः प्रेयरूपकम् सौन्दर्यम् तस्य यो विशेषः अतिशयः तस्य निवेशैः भवस्थानः ‘स भुतपूर्वः नलः एषः अयम् एव किम् ? इति इदम् एतत् वचनम् इतरेतरम अन्योन्यम् मन्द-मन्दम् मन्दप्रकारेण ऊचुः जगदुः। पूर्व लोकेभ्यः श्रुतं जगत्प्रसिद्ध नल-सौन्दर्य स्वसमक्षस्थितव्यक्तौ दृष्ट्वा देवाः 'अयमेव नलः किम् ?' इति परस्परं व्यतर्कयन्निति मावः // 66 // व्याकरण-समरा म्रियन्ते इति /मृ+प्रच् ( कर्तरि ) मराः, न मरा इत्यमराः ( नम् तत्पु०)। प्रयरूपकम् प्रियरूपस्य माव इति प्रियरूप+बु, वु को अक। इतरम् इतरम् इति द्वित्वम् ( कर्मव्यतिहारे ) / मन्द-मन्दम्-मन्दं मन्दम् इति द्वित्वम् ( प्रकारबचने ) / अनुवाद-देवता (लोगों से ) पहले सुने, और ( अब ) मिल जुछ रहे अत्यधिक सौन्दर्य के निवेश से आपस में चुपके-चुपके यह बोल पड़े कि 'यही वह नल है क्या ?" // 16 // __ टिप्पणी-नल के सौन्दर्यादि गुणोंकी ख्याति स्वर्गकोक तक पहुँची हुई थी। अपने सामने रथ पर बैठे व्यक्ति पर वे सभी गुण मिलने-जुलने लगे तो देवता अनुमान करने लगे कि इसे न ही होना चाहिए / विद्याधर यहाँ जाति मलंकार अर्थात् स्वमावोक्ति मान रहे है / हम अनुमान कहेंगे। 'विशे' 'वेशैः' में छेक और अन्यत्र वृश्यनुपास है। तेषु तद्विधवधूवरणाह भूषणं स समयः स स्थाध्वा / तस्य कुण्डिनपुरं प्रतिसर्पन भूपतेयवसितानि शशंसुः // 7 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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