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________________ 134 नैषधीयचरिते अनुवाद-बाद को उन्होंने मन को वश में कर देने (को कला ) में चतुर अपनी-अपनी दूतियाँ पथक्-पृथक् रूप से दमयन्ती के पास मेजी और उसके पिता के लिए युद्ध में ( उसके शौर्य-कर्म से हुई ) प्रसन्नता के बहाने गुप्त उपहार भेजे // 56 / / टिप्पणी-यहाँ 'निगूढाः' विशेषण 'दूत्यः' से भी लग सकता है, क्योंकि प्रकट रूप में दूतियों दमयन्ती के पास कैसे जा सकती थीं ? इसलिए दिक्पालों ने उन्हें 'तिरस्करिणी' विद्या से अदृश्यनिगूढ़ बनाकर भेजा। विद्याधर ने यहाँ अपह्नुति बताई है, किन्तु हमारे विचार से 'कपट' यहाँ तात्त्विक है, विच्छित्तिमूलक नहीं। विच्छित्ति ही अलंकार का प्रयोजक बनती है। 'चित्त' 'चतु' और 'संख्य' 'सौख्य' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। चित्रमन्त्र विबुधैरपि यत्तैः स्वर्विहाय बत भूरनुसने / धौर्न काचिदथवास्ति निरूढा सैव सा चरति यत्र हि चित्तम् / / 57 // अन्वयः-तैः विबुधैः अपि स्वः विहाय यत् मू: अनुसने वत ! अत्र चित्रम् / अथवा निरूढा काचित् द्यौः नास्ति; हि यत्र चित्तम् चलति सा एव सा। ___टीका-तैः इन्द्रादिभिः विबुधैः देवैः अथ च वि = विशिष्टेः बुधैः पण्डितैः ( प्रादि स० ) स्वः स्वर्गम् विहाय त्यक्त्वा यत् यस्मात् भूः भूलोकः अनुसने अनृमृता बत खेदे अन्न अस्मिन् विषये चित्रम् आश्चर्यम् ( 'आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्' इत्यमरः) अस्तीति शेषः। अथवा आश्चर्यस्य विषयो नास्ति, हि यतः निरूढा प्रसिद्धा काचित् काऽपि धौः स्वर्गः नास्ति न विद्यते, हि यतः यत्र यस्मिन् स्थाने चित्तम् मनः चलति गच्छति रमते इत्यर्थः सा एव सा चौरस्तीति शेषः, यस्य मनो यत्र रमते तस्य कृते तदेव स्वर्ग इति भावः / / 57 / / म्याकरण-बुधः बोधतोति Vबुध्+क्त ( कर्तरि ) / अनुसने अनु+/+लिट् ( कर्मवाच्य ) / निरूढा नि+/रुह+क्त ( कर्तरि) / सैव सा-यहाँ पूर्वोक्त उद्देश्य-वाक्य सामान्य होने से 'सामान्ये नपुंसकम्' इस नियम से 'सैव' नपुंसक लिङ्ग प्राप्त था। अनुवाद-समझदार देवताओं ने भी स्वर्ग छोड़कर जो भूका अनुसरण किया-इस पर पाश्चर्य और खेद की बात नहीं ) / स्वर्ग ( किसी स्थानविशेष की ) कोई रूढ़ संशा नहीं है, क्योंकि (जिसका ) जहाँ मन लय जाय, वही स्वर्ग है / / 57 / / टिप्पणी-व्याकरण के अनुसार शब्द दो प्रकार के होते हैं-रूढ़ और ब्युत्पन्न / रूढ़ वे होते है, जो किसी वस्तु विशेष के प्रतिपादक होते हैं, उनकी व्युत्पत्ति नहीं को जा सकती, जैसे-डित्थ, डवित्थ आदि शब्द / इन्हें अव्युत्पन्न प्रातिपदिक मी कहते हैं। लेकिन कवि यहाँ डित्यादि की तरह धौ शब्द को रूढ़ संशा नहीं मानता अर्थात् धौ किसी स्थान विशेष का बोधक नहीं है, अपि तु यह व्युत्पन्न शब्द है। यास्काचार्य के अनुसार इसकी व्युत्पत्ति 'चौः कस्मात् ? द्योतते इति सतः' है अर्थात् द्योतते =रोचते स्वदते वेति /युत् +डो ( कर्तरि ), जहाँ मन रुचे और रमे वही चौ है / इसी व्युत्पत्ति के आधार पर काश्मीर आदि को मी स्वर्ग कहा जाता है। इससे ही मिलता-जुलता आमाणक यह भी है-'तस्य तदेव हि मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नम् / हिन्दी में मी कहावत है-"दिल लग गया गधी से, तो परी का क्या काम है।" विद्याधर यहाँ उत्प्रेक्षा मान बैठे हैं, जो हमारी समझ
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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