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________________ 332 नैषधीयचरिते व्यङ्गथार्थों को हम शब्दशक्त्युब वस्तुध्वनि के अन्तर्गत करेंगे। 'शतमन्युः' सामिप्राय विशेष्य होने के कारण परिकरांकुर बना रहा है / 'बभा' 'बुभु' और 'कश्यपसुता' 'कश्यपसुतः' में छेक तथा अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। कश्यप-ये ब्रह्मा के मनोजात दस पुत्रों में से अत्यतम मरीचि के पुत्र थे। इन्होंने दक्ष प्रजापति की कन्याओं से विवाह करके अदिति से देवता और दिति से दैत्य उत्पन किए। आलिमात्मसुमगत्वसगर्वा कापि शृण्वति मघोनि बमाषे / वीक्षणेऽपि सणासि नृणां किं यासि न त्वमपि सार्थगुणेन // 54 // अन्वय-आत्म...गर्वा का अपि मघोनि शवति सति आलिम् बभाषे–'नृपां वोमणे अपि किम् सधृषा असि ? त्वम् सार्थ-गुणेन न यासि किम् ? टीका-प्रामनः स्वस्याः यत् सुभगवम् सौन्दर्यम् ( 10 तत्प० ) तस्मिन् सगर्वा साभिमाना ( स० तत्पु० ) सगर्वा गण सह वर्तमाना ( 30 वी०) का अपि काचिद् देवाङ्गना मघोनि इन्द्रे ऋण्वति आकर्षयति सति प्राखिम् सखीम् बमाषे अकथ यत्-'नृणाम्' नराणाम् वीपणे अवलोकने अपि किम् सघणा घणषा जुगुप्सया सहिता (ब० वी० ) असि ? स्वम् सार्थ: सङ्घः सङ्ग इति यावत् एव गुणः धर्मः ( कर्मधा०) तेन सङ्गानुरोधादित्यर्थः न याति गच्छसि किम् ? मनुष्येषु घृषां परित्यज्य इन्द्रेण साधं समपि गच्छ / गतानुगतिको हि लोको मवतीति मावः // 54 // ग्याकरण-मघोनि-इसके लिए पीछे श्लोक 48 देखिए / शृण्वति-इसके लिए भी पिछला श्लोक देखिए / बमाषे-/माष्+लिट् आत्मने० / नृणाम्--विकल्प से दीर्घ ( 'नृ च' 6 / 4.6) / अनुवाद-अपने सौन्दर्याभिमान में चूर हुई कोई ( देवानना ) इन्द्र के सुनते रहते सखी को बोली--'मनुष्यों को देखने तक में भी तुम्हें घृया है क्या ? ( इन्द्र का ) साथ हो जाने के कारण (तुम मो) क्यों नहीं चली जाती हो ? // 54 / / टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ वक्रोक्ति मानी है, जो काकु बक्रोक्ति ही होगी, क्योंकि देवाङ्गना सखी को माध्यम बनाकर इन्द्र पर व्यङ्गय कस रही है कि ये तो बुद्ध हैं जो स्वर्ग को सुन्दरियों को छोड़ भूलोक जा रहे हैं। तुम समझदार हो, जो भेड़ चाल की तरह इनके पीछे 2 नहीं जा रही। कोई मी विवेकशील व्यक्ति ऐसा नहीं करेगा जो ये महाराज कर रहे हैं। जिन्हें देखने तक में हमें धृषा होती हैं, उन्हें ये ब्याहने जारहे हैं / बलिहारी है इनको बुद्धि को। शब्दालंकर वृत्यनुपास है। अन्वयुद्य तिपयःपितृनाथास्तं मुदाथ हरितां कमितारः / वर्म कर्षतु पुरः परमेकस्तद्गतानुगतिको न महार्यः // 5 // अन्वयः-अथ हरिताम् कमितारः उति-पयः-पितृनाथाः तम् मुदा अन्वयुः। परम् एकः पुरः वर्त्म कर्षतु, तद्गतानुगतिकः (लोकः) महाघः न ( अस्ति ) // 55 // टीका-अथ इन्द्रस्य गमनानन्तरम् हरिताम् दिशानाम् ( 'दिशस्तु.. आशाश्च हरितश्च ताः' इत्यमरः) कमितारः कामुकाः दिक्पालाः इत्थर्थः चुतिः ज्योतिश्च पया जलश्च पितरः प्रेताश्चेति (इन्द्र ) तेषां नाथाः स्वामिनः (10 तत्पु० ) अग्नि-वरुण-यमा इत्यर्थः तम् इन्द्रम् मुदा हरेष
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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