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________________ नैषधीयचरिते बब बीर करीरों ( करियों को भी ढादेने वाले रण-बाँकुरों; कोंपलों ) को क्यों उत्पन्न नहीं करते होंगे नो परिणाम ( पूर्ण तारुण्य, पकने ) में परों (शत्रयों; अन्य लोगों ) के प्रहरणों ( बायों, हथियारों ) से विक्षत ( बींधे, काटे हुए ) भूतल पर गिर जाते हैं ? // 14 // टिप्पणी-यहाँ कवि वंश आदि शब्दों में श्लेष का पुट देकर रूपक के अप्रस्तुत-विधान में बड़ा चमत्कार दिखा गया है। हम देखते हैं कि वंशों-बाँसों से कोंपल निकलते हैं / जब वे कुछ पक्के हो जाते हैं, तो दराती आदि के प्रहार से काटकर लोग उन्हें जमीन पर गिरा देते हैं। ये कोंपल अचार आदि के काम आते हैं। इस तथ्य का आरोप कवि राजाओं के वंशों-कुलों में होनेवाले वीरों पर करता है, जो तारुण्य में शत्रों के शस्त्रास्त्रों से क्षत-विक्षत से जमीन पर गिरकर वीर-गतिको प्राप्त हो जाते हैं / इस तरह यहाँ साङ्ग रूपक है, जो श्लेष-गर्भित है। 'प्रागिव में उपमा है / 'पर' 'परि' तथा 'क्षता:' 'क्षिति' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पार्थिवं हि निजमाजिषु वीरा दूरमूर्ध्वगमनस्य विरोधि / गौरवाद्वपुरपास्य भजन्ते मस्कृतामतिथिगौरवऋद्धिम् // 15 // भन्वय-वीराः पार्थिवम्, गौरवात् दूरम् ऊध्वं-गमनस्य विरोधि वपुः आजिषु अपास्य मत्कृताम् अतिथि-गौरव-ऋद्धिम् मजन्ते। टीका-वीराः शूराः पार्थिवम् पृथिवीविकारम् अत एव गौरवात् मारित्वात् गुरुत्वगुपयोगादिति यावत् दूरम् अत्यन्तम् ऊर्ध्वम् उच्चैश्च तत् गमनम् प्रयापम् ( कर्मधा० ) तस्य विरोधि प्रतिबन्धकम् गुरुत्वगुणविशिष्टं द्रव्यं नोपरि गच्छतीत्यवस्तादुक्तमेव, वपुः शरीरम् अपास्य त्यक्त्वा मया कृताम् सम्पादिताम् ( तृ० तत्पु० ) अतिथेः अभ्यागतस्य यत् गौरवम् पूजा-सत्कारद्वारा प्राप्तम् महत्त्वमित्यर्थः तस्य ऋद्धिं समृद्धिम् अतिशयमिति यावत् ( उमयत्र प० तत्पु०) मजन्ते प्राप्नुवन्ति / रपे त्यक्तदेहाः स्वर्गे आगत्य मे प्रातिथ्येन गौरवान्विता मवन्तीति मावः // 15 // व्याकरण-वीराः वीरयति ( विक्रमते ) इति/वोर+कः ( कर्तरि ) / पार्थिवम् पृथिव्या विकार इति पृथिवी+अण् ( विकारे ) / गौरवम् गुरोः माव इति गुरु+अण् / विरोधि विरुपद्धोति वि+/रुध् +पिनिः ( कर्तरि ) / अतिथिः इसके लिए पीछे श्लोक 4 देखिए / ऋद्धः ऋध् + तिन् ( मावे ) / गौरव-ऋद्धिम् में 'ऋत्यकः' (6 / 1 / 128) से प्रकृतिमाव / अनुवाद-वोर पुरुष मिट्टी के बने, ( अतएव ) मारी होने के कारण कार अतिदूर जाने में प्रतिबन्धक भूत ( निज ) शरीर को त्यागकर ( स्वर्ग में ) मेरे द्वारा किये आतिथ्य का अतिशय गौरव प्राप्त करते हैं // 15 // टिप्पणी-कोई भी व्यक्ति हो, यदि बहुत दूर जाना हो तो उसे अपना भारी सामान छोड़ देना ही पड़ता है, लेकिन यहाँ आश्चर्य की बात तो यह है कि अपनो गुरुभूत वस्तु (शरीर को तो वीर लोग छोड़ देते हैं। और आगे जाकर उससे और अधिक गुरुमूत वस्तु ( आतिथ्य गौरव ) ग्रहण कर लेते है, वह मो अपनी नहीं, प्रत्युत दूसरे ( इन्द्र ) की। इसमें हमारे विचार से विरोधामास अलंकार है / किन्तु दूसरे 'गौरव' शब्द का महत्त्व अर्थ लेकर परिहार हो जाता है / शब्दालंकारों में 'गौरवा' 'गौरव' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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