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________________ नैषधीयचरिते ज्याकरण-अभिमानः अमि+/मन्+घञ् ( मावे ) / विनम्र-वि+/नम् +रः। अतिथिः अतति ( गच्छति, न तु तिष्ठति ) इति अत् + इथिन् ( कर्तरि ), इसीलिए मनु ने अतिथि का यह लक्षण किया है-'एकरात्रं तु निवसन्नतिथिाह्मणः स्मृतः / अनित्यं हि स्थितो यस्माद. स्मादतिथिरुच्यते / / (31102) किन्तु कुछ लोग 'न तिथिः आगमनस्य नियतं दिनं समयो वा यस्येति' (ब० बी० ) इस तरह व्युत्पत्ति करते हैं / अतिर्भावः इति अतियि+ध्यञ् / अनुवाद-यह मुनि ( नारद ) इन्द्रभवन आदि का ( सौन्दर्यविषयक ) अमिमान चूर किये हुए विमानों को पार कर गए। पैरों में झुके उन ( विमानों ) के स्वामियों द्वारा प्रार्थना की जाने पर मी ( मुनि ने उनका ) आतिथ्य स्वीकार नहीं किया / / 4 / / टिप्पणी-विमानस्थ देवताओं का आतिथ्य स्वीकार न करने का कारण यह था कि इस तरह आतिथ्य-ग्रहण करते-करते जाएंगे, तो इन्द्र के पास पहुँचने में कहीं देरी न हो जाय, क्योंकि इन्द्र के साथ उनका विलम्बासह ( अर्जण्ट ) कार्य था। यहाँ देवगृहों का अभिमान चूर करने में उपमा है, क्योंकि दण्डी ने 'अभिमान चूर करना' 'हँसी उड़ाना' 'लोहा लेना' आदि लाक्षणिक प्रयोगों का सारश्य में पर्यवसान माना है। विद्याधर उत्तरार्ध में आतिथ्य-अग्रहण के कारण के बिना हो आतिथ्यअग्रहण रूप कार्य होने से विमावना मान रहे हैं / 'माना' 'माना' में यमक, 'मुनि' 'मनु' 'मेने' में एक से अधिक बार आवृत्ति होने से छेक न होकर वृत्त्यनुप्राप्त ही है।' तस्य तापनमिया तपनः स्वं तावदेव समकोचयदर्चिः / यावदेव दिवसेन शशीव द्वागतप्यत न तन्महसैव / / 5 / ! अन्वय-तपनः तस्य तापन-भिया स्वम् अचिः तावत् एव समकोचयत् यावत् एव दिवसेन शशी इव तन्महसा एव ( स्वयम् ) द्राक् न अतप्यत / / टीका-तपनः सूर्यः ( 'तपनः सविता रविः' इत्यमरः ) तस्य नारदमुनेः अत्र कर्मणि षष्ठी अर्थात् नारदकर्मकम् यत् तापनम् अष्णिमापादनम् तस्मात् भिया भयेन (पं० तत्पु०) स्वम् निजम् अर्चिः तेजः तावत् तावत्परिमाणम् एव समकोचयत् संकोचितवान् प्रतिसंजहारेति यावत यावत् एव यावत्परिमाणमेव दिवसेन दिनेन दिवसस्य तेजसेत्यर्थः शशी चन्द्रः इव तस्य नारदस्प महसा तेजसा ( 10 तत्पु०) एव सूर्यः स्वयम् द्राक् शीघ्र यथा स्यात्तथा न अतप्यत न तप्तोऽ. भूत् / सूर्यो नारदतेजोऽपेक्षया नाधिकं, न चापि न्यूनं तेजोऽवहदिति भावः।। 5 / / व्याकरण-तपन:-तपतोति /तप् + ( नन्यादित्वात ) ल्यु;, यु को अन / मी:-/मो+ क्विप् (मावे)। समकोचयत्-सम् +/कुच्+णिच+लङ्। अनुवाद-सूर्य ने उन ( नारद ) को ताप पहुँचाने के भय से अपना तेज उतना मात्र ही समेट लिया, जितने मात्र से ही उन ( नारद ) के तेज से ( वह स्वयं ) इस प्रकार न तप बैठे जैसे दिन (के तेज) से चन्द्रमा ( तप जाता है ) // 5 // टिप्पणी-नारद को आते देख सूर्य ने डर के मारे एकदम अपना तेज इसलिए कम कर दिया कि मेरे द्वारा तप जाने से कुपित हो देवर्षि कहीं मुझे भाप न दे बैठे, लेकिन इतना कम मी नहीं किया
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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