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________________ 186 नैषधीयचरिते अन्वय-एवम् वदता नृपेण तनया लज्जास्पदम् यत् न अपृच्छि; वपुषः पाण्डुत्व-तापादि मिः मोहः स्मरभूः यत् अकल्पि; यच्च कपटात् आशी: अवादि, या तत्र सदृशी सान्त्वना स्यात; तत् मत्वा पालिजनः (निजम् ) मनः आनन्द-मन्दाक्षयोः अब्धिम् अतनोत् / टीका-एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण वदता कथयता नृपेण राशा भीमेन तनया पुत्री दमयन्ती बजायाः पाया भास्पदम् पदम् (10 तत्पु०) लज्जाजनकमित्यर्थः यत् न अपृच्छ पृष्टा, येन पृष्टेन लज्जा जायते तन्न पृष्टमित्यर्थः, 'त्वं कस्मिन्ननुरज्यसे, किं वा त्वद्विरहकारणम् ?' एवं पृष्टा पुत्री लज्जिध्यते इति सा एवं न पृष्टेतिभावः। घपुषः शरीरस्य पाण्दुत्वं वैवण्य गतश्रीकत्वमितियावत् च तापः ज्वरश्च ( द्वन्द्व ) श्रादौ येषां तथाभूतैः (ब० वी० ) विकारेरितिशेषः मोहः मूर्छा स्मरः कामः भूः उत्पत्तिस्थानं यस्य तथाभूतः ( ब० बो०) अकल्पि सम्मावितः; शरीरस्य ऋशिमानम् पाण्डुस्वं तापश्च दृष्टा राशा निश्चितं यत् कामकृत एवास्याः मोह इत्यर्थः / यत् च कपटात् व्याजात् प्राशीः आशीर्वचनम् प्रवादि कथिता; 'स्वयंवरे त्वम् अभिमतं दयितम् आप्नुहि' इति यदुक्तमित्यर्थः. या भाशीः तत्र तस्यां दमयन्त्यां साशी समुचिता साधना समाश्वासनम् स्यात् तत् सर्व मरवा ज्ञात्वा भातिः सखो चासो जनः लोकः ( कर्मधा० ) मनः निनम् अन्तःकरणम् प्रानन्दः हर्षश्च मन्दा लज्जा च नयोः ( द्वन्द्व ) ( मन्दाक्षं होस्त्रपा व्रीडा' इत्यमरः) अब्धिम् समुद्रम् अतनोत अकरोत् / 'अस्याः स्वयंवरो भविष्यतीति' राशः कथनेन सख्यो विपुलं हर्ष प्राप्ताः राज्ञा चास्या विरहपीडा शातेति ताः भृशं लज्जिताः जाताः इति मावः // 122 // याकरण-प्रपिछ पृच्छ+लुङ् ( कर्मवाच्य ) / पृच्छ द्विकर्मक होने से 'गौणे कर्मणि दुशादेः' इस नियम के अनुसार गौण कर्म 'तनया' में प्रत्यय हुआ है। अकल्पि /कल्प+लुङ् (कर्मवाच्य ) / सान्त्वना /सान्त्व +युच्, यु को अन+टाप् / स्यात्-'शाक लिङ् च ( 3 / 3 / 172 ), से शक्यार्थ में लिङ् / अग्धिः आपो धीयन्तेऽत्रेति अप् +/घा+ किः (अधिकरप्पे ) / अनुवाद-इस तरह राजा ( मीम ) ने पुत्री ( दमयन्ती ) को जो लज्जाकी बात नहीं पूछी शरीर के पीलेपन और ताप आदि मूछो काम (पीड़ा ) से हुई समझी, और बहाने से जो ( ऐसी) वाशिष कही, जो उस के लिए उचित आश्वासन बन सके–यह सब ( बातें ) जानकर सखियों ने ( अपना ) मन आनन्द और लज्जा का समुद्र बना लिया // 122 // टिप्पणी-आशीः कपटात्-समी टीकाकार इसे एक ही समस्त पद मानकर व्याख्या कर रहे है अर्थात् आशीर्वाद के बहाने, किन्तु वैसी स्थिति में अगले 'या' सर्वनामका सम्बन्ध 'आशीः' से करने में अनुपपत्ति हो जाती है, क्योंकि 'पदार्थः पदार्थेनान्वेति, न तु पदार्थकदेशेन' इस नियम से समस्त पद के एकदेश 'माशो': से सम्बन्ध बन ही नहीं सकता। इसलिए टीकाकार 'या' का अर्थ करने में गड़बड़ा गए / मन पर अधित्व का आरोप होने से रूपक और एक कर्ता के साथ अनेक क्रियाओं का योग होने से समुच्चय है। विद्याधर ने यहाँ लजा मोह और आनन्द-इन मावों का सम्मिश्रण होने से मावशबलता अलंकार भी माना है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। छन्द शार्दक. विक्रीड़ित है, जिप्त के लक्षण के लिए पीछे श्लोक 116 देखिए /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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