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________________ 278 नैषधीयचरिते दिखाया है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास और स्तनो 'स्तनौ' यमक है जिसका पादान्तगत अन्त्यानुप्रास के साथ संकर है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक पद के प्रादि में 'अधित' की तुक मिल जाने से पादादिगत अन्त्यानुप्रास भी है। उपचचार चिरं मृदुशीतलैजलजनालमृणालजलादिमिः / प्रियसखीनिवहः स तथा क्रमादियमवाप यथा लघु चेतनाम् // 112 // अन्वय-त प्रियसखीनिवहः मृदु...दिभिः क्रमात् चिरम् तथा उपचचार यथा इयम् लघु चेतनाम् अवाप। टीका-स प्रियश्चासौ सखी-निवहः (कर्मधा०) सखीनाम् आलीनाम् निवहः गपः (प० तत्पु० ) मुनि कोमलानि शीतलानि हिमानि च तैः ( कर्मधा० ) जलजानाम् कमलानाम् नालानि दण्डाश्च (10 तत्पु० ) मृणालानि कमल-तन्तवश्च जलश्च ( द्वन्द्व ) आदा येषां तथाभूतानि ( ब० वा० ) ( साधनानि ) तैः क्रमात क्रमशः चिरम् दोघकालम् यथा स्यात्तथा तथा तेन प्रकारेण अपचचार उपचरितवान् यथा येन प्रकारेण इयम् एषा दमयन्तः लघु किमपि यथा स्यात्तथा स्वल्पमित्यर्थः चेतनाम् संशाम् अवाप प्राप्तवतो, सखोकृतशीतलोपचारः सा किमपि विगतमूर्छा संजातेत्यर्थः / / 112 // ज्याकरण-शीतलैः शोतमेषामस्तोति शीत+लच् ( मतुबर्थ) अथवा शीतं लातीति शोत+/ ला+कः ( कतरि ) / मृदु मृद्यते इति /मृद्+उः ( कर्मणि)। जलजम् जले जायते इति जल+ /जन् +डा चेतना /चित् + युच् +टाप् / अनुवाद-( दमयन्ती का ) वह प्रिय सखी-वर्ग कोमल ओर शीतल कमलदण्ड, कमल-तन्तु ओर जल इत्यादि से देर तक इस तरह सेवा करता रहा जिससे कि यह ( दमयन्ती) धीरे-धीरे कुछ होश में आ गई // 112 // टिप्पणी-जनजनाल-मृणाल-नारायण जलजनाल और मृणाल शब्दों का अर्थ-मेद स्पष्ट नहीं कर सके / मल्लिनाथ ने दोनों को पर्याय-शब्द समझकर 'नाल' के स्थान में 'जाल' रखकर 'पद्मसमूहै:' अर्थ किया है। चारित्रवर्धन ने अपना सुखावबोधाटीका में नारायण का 'नाल' पाठ ही रखकर लिखा है- “यद्यपि 'पद्मनालं तु मृणाल तन्तुलं बिसम्' इति कोषे नाल-मृणालयोरक्यमेवास्ति, तथाप्याकृतिमेदाभेदोऽवगन्तव्यः / चाण्डूपंडित 'जलजबालमृषालजलानिलैः' पाठ देते हैं, जो ठीक बैठ जाता है / आप्टे ने अपने कोश में मृणाल का अर्थ कमलतन्तु मी दिया है। इसी आधार पर हण्डीकी ने अंग्रेजी अनुवाद 'मृणाल के लिए 'Fibre' शब्द दिया है, जिसका अर्थ हिन्दी में तन्तु होता है / हमने भी उन्हीं का अनुसरण किया है, क्योंकि आकार में जलजनाल और मृपाल का भेद कोई मी टीकाकार या कोषकार स्पष्ट नहीं कर सका है। विद्याधर ने यहाँ स्वभावोक्ति अलंकार माना है। 'चार' 'चिरं' और 'जल' 'जला' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। (युग्मकम् ) अथ 'कले ! कलय श्वसिति स्फुटं चलति पक्ष्म चले ! परिभावय / अधरकम्पनमुन्नय मेनके ! किमपि जल्पति कल्पलते ! शृणु / / 113 / /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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