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________________ चतुर्थसर्गः ( दमयन्ती ) उसी समय मूर्छित हो पड़ी। अत्यन्त दु:खित हुई ( वह ) थोड़े से सहारे ( नल) के ( हृदय से भी हट ) जाने की अनहोनी बात कहाँ सहसकती ? // 110 // टिप्पणी-नल दमयन्ती के हृदय में हरदम मौजूद रहता था, जिसके सहारे वह काम वेदनायें सइती जा रही थी इस आशा के साथ कि कभी न कमी मूर्त रूप में भी इससे साक्षात्कार हो ही जाएगा। लेकिन सखी द्वारा वाक्-छल से हृदय में भी नल का अमाव कहने पर तत्क्षण उसका बेहोश हो जाना स्वाभाविक था। यद्यपि सखी का कहना झूठमूठ, परिहास में ही था, किन्तु दुःखित व्यक्ति 'यह झूठमूठ है या सच है' इसका विचार ही कहाँ करता है ? विद्याधर ने मूर्छित होने का कारण बताने से काव्यलिंग अलंकार माना है, किन्तु मल्लिनाथ ने अर्थान्तरन्यास कहा है : मालूम होता है कि उन्होंने श्लोक के उत्तरार्ध को सामान्य वाक्य समझा है, जो पूर्वार्ध-गत दमयन्ती-समन्धी विशेष बात का समर्थक बना हुआ है / किन्तु हमारे विचारसे उत्तरार्ध वाक्य सामान्य परक नहीं है. क्योंकि 'अतिदुःखिता' यह विशेषण विशेष्य अर्थात् दमयन्ती परक ही है, इसलिए यहाँ विशेष से ही विशेष का समर्थन हो रहा है, जो अर्थान्तरन्यास का प्रयोजक नहीं बन सकता। 'मूर्छ' मृच्छि' और 'मती' 'मति में छेक तथा अन्यत्र वृत्त्यनुपात है। यहाँ कवि ने दमयन्ती को नौवीं कामदशा-मूछाबताई है। अधित कापि मुखे सलिलं सखी प्यधित कापि सरोजदलेः स्तनौ। व्यधित कापि हृदि व्यजनानिलं न्यधित कापि हिमं सुतनोस्तनौ / 111 अन्वयः-का अपि सखी सुतनोः मुखे सलिलम् प्रधित; का अपि सरोजदलै स्तनौ प्यधित; का अपि हृदि व्यजनानिलं व्यधित; का अपि तनौ हिमम् न्यधित / टीका-का अपि काचित् सखी आलिः सु- सुष्ठ तनुः शरीरं यस्यास्तथाभूतायाः (प्रादि ब० वी०) दमयन्त्या इत्यथः मुखे आनने सजिलम् जलम् अधित प्रक्षिप्तवती; का अपि सरोजानाम् कमलानाम् दलैः पत्रः (10 तत्पु०) स्तनो कुचौ प्यधित आच्छादितवतो; का अपि न्यजनस्य तालवृन्तस्य अनिलम् पवनम् (10 तत्पु० ) व्यधित कृतवती, का अपि तनी शरोरे हिमम् चन्दनम् ( 'चन्दने च हिमं विदुः' इति विश्वः) न्यधित निहितवती तां चचिंतवतीति यावत् // 111 // व्याकरण-अधित धा+लुङ् / प्यधित अपि+Vधा+लुङ् मागुरि के मत से यहाँ अपि के अ का लोप हो रखा है। सरोजम् सरसि जायते इति सरस /जन्+ड: (कर्तरि ) / व्यजनम् व्यज्यतेऽनेनेति वि+अ+ल्युट (करणे)। अनुवाद-किसी सखी ने सुन्दरी ( दमयन्ती ) के मुख पर पानी ( का छींटा ) डाला; किसी ने कमल की पंखुड़ियों से स्तन ढके; किसी ने छाती पर पंखा झला और किसी ने देह पर चन्दन-लेप किया // 111 // टिप्पणी-दमयन्ती की मूळ दूर करने के लिए सखी-गण शीतोपचार में लग गया। इस श्लोक में कवि ने "व्याकरण के "उपसर्गे धास्वर्थो बल्लादन्यत्र नीयते" हम नियम का अच्छा मपन्वय
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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