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________________ द्वितीयसर्गः 27 विष्णुः एव ( 'रम्भा कदस्यप्सरसोः' इत्यमरः ) / दमयन्ती रम्मोरुर स्ति अर्थात् तम्या ऊरू न केवलं रम्मे ( करल्यौ ) इव, अपितु रम्भायाः ( अप्सराविशेषस्य ) अपि चोरू इव स्तः / / 37 // ___ व्याकरण-जिष्णुः जयतीति/जि+म्नुः 'रम्मा' में 'न लोका०' ( 2 / 3 / 66 ) से षष्ठी निषेध / . अनुवाद-सन्दरी ( दमयन्ती ) दो विशाल जांघों द्वारा केवल वृक्ष-रूप रम्मा (कदली) को हो जीतने वाली है क्या ? ( नहीं, नहीं ) वह तो तरुणी अ रम्भा ( अप्सरा ) को भी जीतने वाली में, जिसका कुच-युगल ( स्पर्श ) कुबेर-पुत्र ( नलकूबर ) को तपस्या के फल-स्वरूप प्राप्त हुआ था / / 37 / / टिप्पणी-रम्मा-स्वर्गीय अप्सराओं में रम्मा का सौन्दर्य सबसे अधिक था। कुबेर-पुत्र नलकूबर उस पर मोहित हो उठा और प्रणय निवेदन करने लगा, किन्तु रम्मा ने उसे ठुकरा दिया। नल-कूबर ने फिर उसकी प्राप्ति हेतु घोर तप किया। तब जाकर कहीं फल-स्वरूप वह उसका हृदय जीत सका। विद्याधर ने 'किमु' को उत्प्रेक्षा-वाचक मानकर यहाँ उत्प्रेक्षा मानी है, किन्तु दण्डी ने 'टक्कर लेना' 'जीतना' आदि का सादृश्य में पर्यवसान माना है, अतः उपमा हो बनेगी। शब्दा. लंकारों में 'रम्मा' शब्द में श्लेष, 'तरु' 'तरु' में यमक, 'परि' 'पर' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। * जलजे रविसेवयेव ये पदमेतत्पदतामवापतुः / ध्रुवमेत्य रुतः सहसकीकुरुतस्ते विधिपत्रदम्पती // 38 // अन्वयः-ये जलजे रवेः सेवया इव एतत्पदताम् पदम् अवापतुः, ते विधि-पत्र-दम्पती एत्य रुतः सहंसकोकुरुतः ध्रुवम् / टीका-ये जलजे द्वे कमले रवेः सूर्यस्य सेवया उपासनया (प. तत्पु० ) इत्र एतस्या दमयन्त्या पदयोः पादयोः ( 10 तत्पु० ) भाव इति पतत्पदता ताम् पदम् उत्तमस्थानम् अवापतुः प्रापतुः सूर्यातपसहनरूपतरःफलस्वरूपं दमयन्त्याः पादौ बभूवतुरित्यर्थः, ते जलजे (दि० द्विव०) विधेब्रह्मयः पत्रयोः वाहनयोः ( पत्रं वाहन-पक्षयोः' इत्यमरः ) (10 तत्पु० ) दम्पती जाया च पतिश्च हंसी हंस. श्चेत्यर्थः ( द्वन्द्व प्र० द्वि०) एत्य समागत्य रुतः शब्दात् कूजनादित्यर्थः सहसके इसकाभ्यां पादकटकाभ्याम् ( हमकः पादकटकः' इत्यमरः) अथ च सौ एव हंसको ताभ्यां सहिते इति सहसके (ब० वा० ) असहंसके सहंसके सम्पद्यमाने कुरुत इति सहंसकोकुरुतो ध्रुवम् / सूर्योपसनया पायं दमयन्तीपादयरूप लेमे, हंसद्वयमपि ब्रह्मोपसनया दमयन्तो-पादयोहंसकद्वयं नूपुरयुगलामति यावत् जातं हंसानां सदा पद्मसहगामित्वादित्यर्थः / / 38 / / व्याकरण-जलजम् जलाज्जातमिति जल+जन् +डः ( कर्तरि ) / सेवा/सेव् + अ + टाप् / दम्पती जाया च पतिश्चेति जाया शब्द को दम्भाव निपातित / रुत्-/+विवप् (मावे) तुगागम / हंसकः हंस एव हंस+कप् (स्वायें ) / अनुवाद-जो दो कमल सूर्य को उपासना से मानो इस ( दमयन्ती ) के दो चरण-रूप उत्तम
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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