________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ चन्द्रमा पर कामदेव के मुखत्व के आरोप से रूपक और शश का अपह्नव करके पापकी कालिमा की स्थापना से अपह्न ति है। लेकिन मल्लिनाथ मानो चन्द्र चन्द्र न हो काम का मुख हो और शश शश न हो, पाप की कालिमा हो-इस तरह अपह्न ति पूर्वक दो उत्प्रेक्षायें मान रहे है। वास्तव में यहाँ चन्द्र का अपह्नव है ही नहीं, तादात्म्य-स्थापन मात्र है जो स्पष्टतः रूपक का विषय है। चन्द्रमा अपने भीतर शश चिह्न लिये चमक रहा था। आग में जलती हुई चीज भी चमकती रहती है, और जलकर बीच में कुछ कालो पड़ जाती है, इसीलिए कविने उपरोक्त अप्रस्तुत-योजना की है / विधि,' 'विधुः' 'विधे' में एक से अधिक वार आवृत्ति होने से अन्यत्र की तरह वृत्त्यनुपास ही है। (द्विजपतिप्रसनाहितपातकप्रभवकुष्ठसितीकृतविग्रहः / विरहिणीवदनेन्दुजिघन्सया स्फुरति राहुरयं न निशाकरः // 1 // ) अन्वयः-( हे सख, ) द्विजपति विग्रहः अयम् विरहिणी.. त्सया राहुः स्फुरति, न निशाकरः / ___टीका-(हे सखि, ) द्विजपतिः चन्द्रः अथ च ब्राह्मणश्रेष्ठः तस्य ग्रसनेन मक्षणेन (10 तत्पु० ) माहितम् जनितम् (त. तत्पु० ) यत् पातकम् पापम् (कर्मधा०) तस्मात् प्रभवः उत्पत्तिः (पं० तत्पु० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी०) यत् कुष्ठम् कुष्ठरोगः ( कर्मधा० ) तेन सितीकृतः श्वेतीकृतः (तृ० तत्पु०) विग्रहः शरीरम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) अयम् एष विरहिणीनां मुखम् वदनम् (10 तत्पु० ) एव इन्दुः चन्द्रः ( कर्मधा० ) तस्य जिधरसया मक्षणेच्छया ( 10 तत्पु० ) राहुः अरुन्तुदः स्फुरति भ्राजति, निशाकरः चन्द्रो न / व्याकरण-प्राहित अ+Vषा+क, ध को हि / जिघत्सा घस्तुमिच्छेति /घस्+सन्+ अ+टाप् स को त / अनुवाद-(हे सखी। ) दिजपति (चन्द्रमा; श्रेष्ठ ब्राह्मण) को खाजाने से उत्पन्न पाप के कारण हुए कोढ़ से शरीर में सफेद बना हुआ यह विरहिणियों के मुख-चन्द्र को खानेको चाह से राहु चभक रहा है, चन्द्रमा नहीं // 1 // टिप्पणी-यहाँ रूपकोत्थापित-अपहृति है, लेकिन यह श्लोक प्रक्षिप्त मालुम पड़ता है, क्योंकि इसमें राहुकी निन्दा की गयी है / प्रकरण तो चन्द्रोपालम्भ का चल रहा है,राहु के उपालम्भका नहीं उसको तो स्तुति ही है / यही कारण है कि न तो नाराथण और नही मल्लिनाथ ने इस श्लोक को अपनाया है, न कोई टीका की है। हंडीको ने भी छोड़ दिया है। लेकिन हाँ, जिनराज और चारित्रवर्धन क्रमशः अपनी अपनी सुखावबोध और तिलक नामक टीकाओं में इसे ले रहे हैं / इसलिए प्रसङ्गवश हम ने भी इसको टीका कर दी है, है यह प्रक्षेप ही / इसका माव यह है कि पापी लोग पापों का. फल मोगते मोगते मी पाप करने से नही हटते। * अयं श्लोकः 'विक-मुखावदोषा'ख्यव्याख्ययोरुपलभ्यत इत्यवपातव्यम् /