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________________ . 4 नैषधीयचरिते कुम्हार के डडे में रहने वाला 'चक्रभ्रमकारिता' (चक्र घुमाने का धर्म ) कवि को यहाँ घट में आवा हुमा दोख रहा है, क्योंकि दमयन्ती के कुच-रूप घटों में 'चक्रभ्रमकारिता' (दो चकवाओं की भ्रान्ति कर देना ) धर्म दीख हो रहा है। वास्तव में देखा जाय, तो कवि का यह वाक्-छल है। घट में रहनेवालो 'चक्रभ्रमकारिता' और है और स्तनों में रहने वाली 'चक्रभ्रमकारिता' और है। श्लेष का पुट देकर कवि ने यहाँ दानों का अमेदाध्यवसाय कर रखा है, अतः यह भेदेऽभेदातिशयोक्ति है; कुचों पर कलसत्वारोप में रूपक, उनमें चकवाओं के भ्रम में भ्रान्तिमान् तथा 'किमु'पदबाच्य गुण संक्रमण में उत्प्रेक्षा होकर सभा का परस्पर संकरालंकार बना हुआ है / शब्दालंकारों में 'चक्रभ्रम' 'चक्रभ्रम' में यमक आर अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। मजते खलु षण्मुखं शिखा चिकुरैर्निर्मितबर्हगर्हणः / अपि जम्भरिपुं दमस्वसुर्जितकुम्मः कुचशोमयेमराट् // 33 // अन्वयः-दमस्वसुः चिकुरैः निर्मित-बह-गर्हणः शिखी षण्मुखं भजते खलु; ( दमस्वसुः ) कुचशोमया जित-कुम्भः इमराट् अपि जम्भ-रिपुम भजते।। टीका-दमस्वसुः दमयन्त्याः चिकुरैः केशैः निर्मिता कृता बर्हम्य पिच्छस्य ( प. तत्पु० ) गहणा तिरस्कारः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) शिखी मयूरः षण्मुखं षट् मुखानि यस्य तथामूतम् (ब० वो० ) षडाननं कार्तिकेयं भजते सेवते खल्वित्युत्प्रेक्षायाम् / अन्योऽपि पराजित: स्वस्वामिनं सहायातार्थमुपसर्पति। शिखीहि षण्मुखस्य वाहनम् / ( दमस्वसुः ) कुचयोः स्तनयो: शोमया कान्त्या ( 10 तत्पु० ) जितौ पराभूतो कुम्भौ गण्डस्थले ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वो०) इमानां हस्तिनां राजेतीमराट ( 10 तत्पु० ) ऐरावत इत्यर्थः अपि जम्भस्य एतत्संशकासुरविशेषस्य रिपुं शत्रम् ( ष. तत्पु०) इन्द्रमित्यर्थः भजते खलु / दमयन्त्याश्चिकुरा मयूरपिच्छादप्यधिकवनाः, स्तनौ चैरावत: गण्डस्थलाभ्यामप्यधिकशोभाशालिनावित्यर्थः // 33 / / म्याकरण-गहखागई +युच्+टाप् / इमराट इभ+/राज+क्विप् ( कर्तरि ) / भनुवाद-दम की बहिन ( दमयन्ती ) के केशों द्वारा पुच्छ के बालों के विषय में तिरस्कृत किया गया हुआ-सा मयूर कार्तिकेय की सेवा कर रहा है। उसके कुचों की शोभा द्वारा गण्डस्थलों में पराजित हुआ-सा ऐरावत भी इन्द्र की सेवा कर रहा है / 33 / / टिप्पणी-यहाँ दो उत्प्रेक्षाओं की संसृष्टि है, साथ ही मयूर द्वारा कार्तिकेय की और ऐरावत द्वारा इन्द्र की सेवा किये जाने के हेतु क्रमशः 'निर्मित-बर्ह गर्हयत्व' और 'जितकुम्भत्व' बताने से काव्यलिङ्ग तथा शिखी और इमराट् इन दो कारकों का एक ही 'भजते' क्रिया से सम्बन्ध हाने से क्रियादीपक भी है। शब्दालंकारों में 'वह' 'गहे' में पदगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनु - प्रास है। उदरं नतमध्यपृष्ठतास्फुटदङ्गुष्ठपदेन मुष्टिना / चतुरङ्गुलमध्यनिर्गतत्रिवलिभाजि कृतं दमस्वसुः // 34 // अन्वयः-दमस्वसः उदरम् नत.. पदेन ( ब्रह्मगः ) मुष्टिना चतुरगु भ्राजि कृतं ( किम् ? )
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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