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________________ द्वितीयसर्गः मर्थात् 'सदैव सार-साथ रहना एवं परस्पर मिला रहना' यह बताने हेतु कहा है। कुचों पर प्लवकुम्मों की संमावना को गई है, अतः उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक यहाँ खलु शब्द है। कान्ति पर जलत्वारोप व्यङ्गय है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। कलसे निजहेतुदण्डजः किमु चक्रभ्रमकारितागुणः / स तदुचकुचौ भवन्प्रमाझरचक्रभ्रममातनोति यत् // 32 // अन्धयः-(हे राजन् ! ) निज-हेतु-दण्डजः चक्र-भ्रम-कारिता-गुणः कलसे किमु ? यत् स तदुच्चकुचौ भवन् प्रभा-झर-चक्र-भ्रमम् आतनोति / टीका-(हे राजन् ! ) निजः स्वकीय: हेतुः निमित्त-कारणम् ( कर्मधा० ) यो दण्डः (कर्मधा०) तस्माज्जायते इति तज्जः ( उपपद तत्पु०) तदुत्पन्नः चक्रम्य कुम्भकारोपकरणविक्षेषस्य यो भ्रमः भ्रमणम् (10 तत्षु० ) तं कर्तु शीलमस्येति ०कारी / उपपद-तत्पु० ) तस्य भावः तत्ता गुणः धर्मः रूपादिरित्यर्थः ( कर्मधा० ) कलसे घटे किम् ? अर्थात् दण्डश्चक्र भ्रामयतोति दण्डस्य चक्रभ्रमकारिता. रूपो धर्मो घटे संक्रान्तः किम् ? यत् यतः स कलम: तस्या दमयन्त्या उच्चौ समुन्नतौ ष. तत्पु०) कुचौ र 'नौ ( कर्मधा० ) भवन् जायमानः तत्कुचत्वे परिणत इत्यर्थः प्रभाया: लावण्य-च्छटाया झरे प्रवाहे ( स० तत्पु० ) चक्रस्य कुम्मकारोपकरणविशेषस्य अथ च चक्रवाकाख्य-पक्षिणः ( ष. तत्पु०) भ्रमम् भ्रमणम् अथ च भ्रान्तिम् ('चक्रो गणे चक्रवाके चक्र सैन्य-रथाङ्गयोः / ग्रामजाले कुलालस्य माण्डे राष्ट्रानयोरपि' इति विश्वः ) आतनोति करोति / तस्याः कुचौ प्रभाझरे भ्रमत् चक्रवाक युगल. मिव प्रतीयत इति भावः // 32 // ___ व्याकरण-दण्डजः दण्ड+/जन् +ड: ( कर्तरि ) भ्रमः /भ्रम् +घञ् (मावे ) / ०कारिता ताच्छील्ये णिन् + तल् +टाप् / प्रभा प्र+मा+अ+टाप् / अनुवाद-(हे राजन् ! ) अपने ( निमित्त ) कारणभून डंडे से उत्पन्न होने वाले ( कुम्हार के ) चक्रभ्रम ( चाक घुमाने ) का गुण घट में आ गया है क्या ? क्योंकि वह ( घट ) उस ( दमबन्ती ) के दो उच्च कुच रूप बनाता हुआ लावण्य-प्रवाह में चक्रभ्रम ( दो चकवाओं की भ्रान्ति ) पैदा कर रहा है // 32 // टिप्पणी-यहाँ कवि वाक् छल ( श्लेष ) अपना कर अपनी दार्शनिक निपुणता दिखा रहा है। न्यायसिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कार्य के समवायी, असमवायी और निमित्त-ये तीन कारण हुआ करते हैं। इनमें से समवायी पर कार्य की सत्ता टिको रहती है, जैसे घर का समवायो मिट्टी अथवा कपड़े का समवायी सूत है। असमवायी कारण समवायी में रहकर कार्य बनाता है, जैसे मिट्टो-मिट्टो अथवा सूत सूत का संयोग। इनसे भिन्न सभी कारण-जैसे कुम्हार, चाक, चाक घुमाने का डंडा आदि अथवा जुलाहा, मिल, खड्डी आदि निमित्त होते हैं, इनमें से समवायी का गुण अथवा धर्म हो कार्य में आता है, जैसे मिट्टो व सूत काले, तो घट व काड़ा मो काला। कुम्हार, दण्ड आदि के रूप आदि कार्य में कभी नहीं आयेंगे, परन्तु कवि दमयन्ती के स्तन देखकर यहाँ उक्त न्याय-सिद्धान्त के विपरीत यह कल्पना कर रहा है कि मानो निमित्त कारण के गुण भी कार्य में आ जाते हैं, जैसे
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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