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________________ चतुर्थसर्गः खाया हुआ भो दो बार उत्पन्न नहीं हुआ लेकिन समुद्र का यह (चन्द्ररूष ) सफेद विष (अनेक) देवताओं द्वारा पीकर समाप्त किया जो स्वयमेव नया-नया दोबारा उत्पन्न हो जाता है। टिप्पणी-एक तो ऐसा काला विष है, जिसे एक ही बार एक हो देवता खाकर पचा गया है। वह फिर पैदा ही नहीं हुआ जब कि दूसरा सफेद विष ऐसा निकला कि अनेक बार अनेकों देवताओं से खाया जाता है लेकिन फिर-फिर नया पैदा होता जाता है। इस तरह चन्द्ररूप श्वेत विष में कालकूटरूप काले विष की अधिकता बताने से व्यतिरेकालंकार है। विद्याधर ने दो विषों में विरोष दिखाने से विरोधालंकार मी माना है। शब्दालंकारों में सित' शित / ( सशयोरभेदात् ) 'विश' 'विष' ( शषयोरभेदात् ) में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सुरैः निपीय-कृष्णपक्ष में चन्द्रमा को एक-एक कला के क्षीण होते रहने के सम्बन्ध में शास्त्रों में यह उल्लेख मिलता है कि अमृतात्मक चन्द्रमा के अमृत की एक-एक कला ( अंश) को 'प्रथमा पिवते वह्निः' इत्यादि उक्ति के अनुसार देवता लोग पोते रहते हैं। विरहिवर्गवधब्यसनाकुलं कलय पापमशेषकलं विधुम् / सुरनिपीतसुधाकमपापकं प्रहविदो विपरीतकथाः कथम् // 12 // अन्वयः-(हे सखि ) विरहि कुलम् अशेषकलम् विधुम् पापम् कलय; सुर-निपीत-सुधाकम् ( विधुम् च ) अपापकम् ( कलय ) / ग्रहविदः विपरीत-कथा कथम् ? टीका-(हे सखि ) विरहिण्यश्च यिर हिपश्चेति विरहिणः ( एकशेष स० ) तेषाम् यो वगः समूहः तस्य वधः मारपम् ( उभयत्र प० तत्पु०) एव व्यसनम् दुव्यसनम् आसक्तिरिति यावत् (कर्मधा० ) तस्मिन् प्राकुलम् व्यापृतम् न शेषः अशेषः यासा तयाभूताः सकला (10 वी०) कलाः यस्य तथाभूतम् (ब० बी०) पूर्णमित्यर्थः विषुम् चन्द्रम् पापं पापकारिणं क्रूरमिति यावत् कलय अवगच्छ विरहिषां वध-कारणात् , सुरैः देवैः निपीता पानविषयीकृता (तृ० तत्पु०) सुधा अमृतम् ( कर्मधा.) यस्य तथाभूतम् (ब० वी०) अमावास्या-चन्द्रमित्यर्थः प्रपापकम् निष्पापम् निष्पापम्, पुण्यवन्तं शुममिति यावत् कलय, ग्रहविदः ग्रहवेत्तारो ज्योतिषिष इति यावत् विपरीता विरुद्धा कथा कथनम् ( कर्मधा० ) येषां तथाभूताः (ब० वी०) कथम् कस्मात् ? विरहिषाम् अपकारकत्वात् पौर्णमासी-चन्द्रः करः, अमावास्याचन्द्रः तेषां शान्तिकारकत्वात् शुम इत्यनुभवसिद्ध, किन्तु न जाने कस्मात्कारप्पात् ज्योतिषिलोका एतद्विरुद्धं पूर्णिमाचन्द्रः शुम-ग्रहः, क्षीणचन्द्रश्च क्रूर ग्रह इति कथयन्तीति मावः // 6 2 // म्याकरण-वधः हन् +अप् ( मावे ) हन् को वधादेश / व्यसनम् पि+/अस्+ल्युट / सुधाकम् ब० बी० में शैषिक कप् समासान्त और विकल्प से हस्वामाव ('आपोऽन्यतरस्याम्' 74 / 15) प्रहविदः ग्रहान् विदन्तीति ग्रह+/विद्+किप् ( कर्तरि ) / अनुवाद-हे सखी,) विरही और विरहिपियों की हत्या करने के व्यसन में लगे हुए पूर्ण कलाओं वाले चन्द्रमा को तुम पापी समझो, ( और ) देवताओं द्वारा पीये गए अमृत वाले ( चन्द्र) को पुण्यवान् ( समझो किन्तु ) ज्योतिषी लोग विपरीत बात क्यों कहते हैं ? // 12 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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