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________________ 218 नैषधीयचरिते अन्धयः-वियोगिनी असौ मनसिजस्य शशिमयम् दहनास्त्रम् उदित्वरम् विमृश्य शटिति अश्रुमिषात् तदुचितम् वारुप्पम् प्रतिशस्त्रम् उपाददे। टीका-वियोगिनी विरहिणी असौ दमयन्ती मनसिजस्य कामस्य शशी चन्द्र एवेति शशिमयम् चन्द्रात्मकं दहनः अग्निः एव अस्त्रम् ( कर्मधा०) आग्नेयास्त्रमित्यर्थः उदित्वरम् उदयमानं विमृश्य आलोच्य विचार्येति यावत् झटिति शीघ्रमेव अश्रणां नेत्रजलानां मिषाद् व्याजात तस्य आग्नेयास्त्रस्य सचितं योग्यं तत्प्रतीकारक्षममित्यर्थः वाहणम् वरुणदेवताकम् प्रतिशस्त्रम् प्रत्यायुधम् उपाददे गृहीतवती / कामप्रक्षिप्तम् आग्नेयास्त्रं निवारयितुं वारुपास्त्रं प्रयुक्तवतीत्यर्थः चन्द्रोदये तत्तापमसहमाना रोदितुमारेमे इति भावः // 38 // व्याकरण-वियोगिनी वियोगोऽस्यास्तीति वियोग+इन् +ङीप् / मनसिजः मनसि जायते इति मनस्+/जन्+ड: विकल्प से सप्तमी का अलुक् , लोप-पक्ष में मनोजः) / शशिमयम् शशी एवेति शशिन +मयट ( स्वरूपायें)। दहनः दहतीति /दह + ल्युः ( कर्तरि ) / अस्त्रम् अस्यते इति अस् +ष्ट्रन् / उदित्वरम् उदेतीति उत्++क्वरप ( कर्तरि ), तुगागम / पारुणम् वरुणो देयताऽस्येति वरुप+अण् / 'सास्य देवता' 4 / 2 / 24 ) / प्रतिशस्त्रम् प्रतिगतं शस्त्रमिति (प्रादि तत्पु०)। अनुवाद-विरहिणी वह ( दमयन्ती) कामदेव का चन्द्र-रूप आग्नेय अस उठता हुआ समक्ष कर शीघ्र ही आँसुओं के बहाने उसके ( प्रतीकार- ) योग्य वारुण अस्त्र ग्रहण कर बैठी // 38 / / टिप्पणी-चन्द्र के उदय होने पर दमयन्ती जलने लग जाती थी। इस पर कवि की यह कल्पना है कि मानो चन्द्र को कामदेव ने उसके विरुद्ध आग्नेय अस्त्र के रूप में प्रयुक्त किया है: इसलिए मल्लिनाथ इसे उत्प्रेक्षा मानते हैं। वे 'विमृश्य' शब्द में सम्मावना देखते हैं। उत्प्रेक्षा के साथ मिष' शब्दवाच्य केतवापह्नति है। लेकिन विद्याधर अतिशयोक्ति के साथ अपह्नति कहते हैं। चन्द्र और होता है तथा आग्नेयास्त्र और यहाँ दोनों का अमेदाध्यवसाय हो रखा है-अथवा चन्द्र के साथ दहनास्त्रत्व का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है। हमारे विचार से चन्द्र में आग्नेयास की भ्रान्ति होने से भ्रान्तिमान् और अपह्नति बनेंगे। आग्नेयास्त्र का प्रतीकार वारुपास से ही हो सकता है, क्योंकि जलमय होने से वह अग्नि को बुझा देता है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। अतनुतां नवमम्बुदमाम्बुदं सुतनुरस्त्रमुदस्तमवेक्ष्य सा / उचितमायतनिश्वसितच्छलाच्छवसनमस्त्रममुञ्चदमुं प्रति // 39 // अन्वयः-सा सुतनुः नवम् भम्बुदम् अतनुना उदस्तम् आम्बुदम् अस्त्रम् अवेचय आयत-विश्वसितच्छलात् अमुम् प्रति उचितम् श्वसनम् अस्त्रम् अमुञ्चत् / टीका-सा सुः शोभना तनुः शरीरं यस्यास्तथामृता ( प्रादि ब० बो० ) दमयन्तीत्यर्थः नवम् नूतनम् अम्बुदम् मेघम् न तनुः यस्य तथाभूतेन (नञ् ब० वी० ) कामदेवेनेत्यर्थः उदस्तम् स्वा प्रति प्रक्षिप्तम् वाम्बुदम् अम्बुद-सम्बन्धि अस्त्रम् पार्जन्यास्त्रमित्यर्थः प्रवेच्य वीक्ष्य प्रायतम् दोर्षम् यत् निश्वसितम् निश्वासः (कर्मधा० ) तस्य छलात् मिषात् अमुम् अतनुम् प्रति उद्दिश्य
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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