SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैषधीयचरिते मारी। शिवाल और मत्स्य दोनों पानी के भीतर रहते हैं। इस कारण मत्स्य खुजली मिटाने शिवाल से शरीर रगड़ता ही है। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है, इव शब्द द्वारा वाच्य है / इससे यह ध्वनित होता है कि छाती पर शिवाल धरने पर भी कोयल की कूक सुनते ही दमयन्ती हृदय से सिहर उठती थो। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / न खलु मोहवशेन तदाननं नलमनः शशिकान्तमबोधि तत् / इतरथाऽभ्युदये शशिनस्ततः कथमसुनुवदश्रुमयं पयः / / 36 // अन्वयः-नल मनः तत् तदाननम् न खलु मोह-वशेन शशि-कान्तम् अबोधि, इतरथा शशिनः अभ्युदये ततः अश्रमयम् पयः कथम् असुनुवत् ? टोका-नलस्य मनः मानसम् (10 तत्पु० ) ( कर्तृ ) तत् प्रसिद्धम् अथवा उन्मादवशेन यत्र-तत्र सर्वत्रानुभूयमानम् तस्या दमयन्त्या प्राननम् वदनं (प. तत्पु० ) न खलु निश्चयेन मोहः दमयन्तीविषयकोन्मादः तस्य वशेन कारणेन शशिकान्तं चन्द्रकान्ताख्यं मणिविशेषम् अथच शशिवत् चन्द्रवत् ( उपमा तत्पु० ) कान्तं रमणीयम् प्रबोधि अबुध्यत, किन्तु तत्त्वत एव तद्वदनस्य चन्द्रकान्तमपिस्वम् चन्द्रतुल्यत्वं च अबोधि इतरथा अन्यथा तत्त्वतो मपित्वेन, चन्द्रतुल्यत्वेन च शानामावे, मोहवशात् चन्द्रकान्तमणित्वस्य चन्द्रतुल्यत्वस्य च भ्रमे इति यावत् शशिनः चन्द्रस्य अभ्युदय उदितत्वे उत्कर्षे च सति ततः दमयन्ती-मुखात् अश्रु बाष्पम् एवेति प्रश्रमयं पयः जलम् अश्र रूपं जलमित्यर्थः कथम् कस्मात् असुस्नवत् स्रवति स्म / चन्द्रोदये दमयन्तीमुखात अश्रुजलं सवति स्म; चन्द्रकान्तमणितोऽपि चन्द्रोदये जलं स्रवतीति मुखस्य चन्द्रकान्तत्वं तात्त्विकमेव, नतु भ्रान्तमिति भावः चन्द्रवत् कान्तत्व-पक्षे च चन्द्रस्य गुणे स्वसदृशस्य सतो वैरिणोऽभ्युदये = उत्कर्ष सति दुःखेन अशु पातः स्वाभाविक एवेति भावः / / 36 // ग्याकरण-अबोधि बुध+लुङ् ( कर्तरि ) इतरथा इतरत् +थाल् ( प्रकारवचने ) असु. नुवव/त्रु+लङ् ( अस्यन्ते कर्तरि चङ्) (पि-श्रि-द्रु--सु० 3 / 1 / 48) / अनुवाद-नल के मन ने उस ( दमयन्ती ) के मुख को उन्माद-वश चन्द्रकान्त ( चन्द्रकान्त मणि) नहीं समझा, अन्यथा चन्द्र के अभ्युदय ( उदय ) होने पर उस ( के मुख ) से अश्रु-रूप जल क्योंकर बहता ? ( नल के मन ने उसके मुख को उन्मादवश चन्द्रकान्त ( चन्द्रमा के समान ) नहीं समझा. अन्यथा चन्द्र के अभ्युदय ( उत्कर्ष ) पर उस ( के मुख ) से ( ईर्ष्या-वश ) क्यों कर अश्रुरूप बल बहता? / / 36 / / टिप्पणी- यहाँ विद्याधर ने अनुमानालंकार कहा है, क्योंकि चन्द्रोदय होने पर मुख से अश्रुजल सर रहा था चन्द्रोदय में जल चन्द्रकान्त से हो झरा करता है / इसलिए मुख चन्द्रकान्त है। वस्तुतः मुख चन्द्रकान्त तो था ही नहीं, जलस्रव कारण से यह कल्पनाकी जा रही है कि मानो वह चन्द्रकान्त हो इसलिए हमारे विचार से उत्प्रेक्षा है, जो गम्य है / चन्द्रकान्त शब्द श्लिष्ट होकर उपमा का मी प्रतिपादन कर रहा है। मुखकी कान्तता में चन्द्र उपमान बना हुआ था और उपमानजैसाकि नियम है-उपमेय से गुणोत्कर्ष रखता ही है, इसलिए अपने प्रतिद्वन्द्वी चन्द्रका यदि
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy